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चाणक्यसूत्राणि
प्रजा अवश्य ही उस जैसी बनकर रहती है । अकर्मण्य सुखिया (भारामतलब ) राजा शत्रओंको आक्रमणका निमन्त्रण देनेवाला बन जाता है। इस दृष्टिसे राजाको अपने चरित्रके संबन्धमें पूरा सतर्क और सावधान रहना चाहिये।
कौटलीय अर्थशास्त्र में राजाके कर्तव्य जिस रूप में वर्णित है उसमें प्रजाशक्तिका अक्षुण्ण रहना ही राजशक्तिका मूलाधार मान गया है। दूसरे शब्दोंमें कौटल्यका राजा ही असंख्य देशवासियों की हिताकांक्षाका एकीभूत स्वरूप तथा प्रजातंत्रका मुखिया अगुभा या नेता है। राज्य के प्रत्येक व्यक्तिका हित तो कौटल्य के राजाके व्यक्तिगत हित में तथा कौटल्य के राजाका व्यक्ति. गत हित राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्तिके व्यक्तिगत हितमें सम्मिलित है। कौटत्यके राजाको ऐसी कोई भी व्यक्तिगत सुखसुविधा भोगनेका अधि. कार नहीं है जिसका प्रजाहित के साथ विरोध हो । प्रजाका धनशोषण करके राज्याधिकार भोगनेवाला राजा तो कौटलीय अर्थशास्त्र के अनुसार देशद्रोही हैं। देशद्रोही राजाको राज्यच्युत करके उसका अस्तित्व मिटाकर राष्ट्रको देशद्रोह नामक कलंकसे मुक्त रखना प्रजाका अधिकार स्वीकार किया गया है। आविनीतस्वामिलाभादस्वामिलामः श्रेयान् ।।
(चाणक्यसूत्र १५) भयोग्य व्यक्तिको राजा बनानेकी अपेक्षा किसीको राजा न बनाकर जन तांत्रिक ढंगसे राजव्यवस्था कर लेना अच्छा है । इसका अर्थ यह हुमा कि आदर्श चरित्र व्यक्तिको ही राजा बनाना चाहिये । सम्राट चन्द्रगुप्त कौटल्य वर्णित इस राजचरित्रका षोडशकला पूर्ण भादर्श था। यों भी कह सकते हैं कि कौटल्यवर्णित राजचरित चन्द्रगुप्तके ही व्यक्तित्वका एक सुन्दर चित्रण है। यदि आप इस सत्यकी साक्षी लेना चाहें तो सद्वंश जात अलौकिक बुद्धि मान, सुदीर्घदी धार्मिक वीर, उत्साही, रणकुशल, कृतनिश्चय, स्वार्थत्यागी, निरन्तर कर्तव्यतस्पर सम्राट चन्द्रगुप्तका कन्याकुमारीसे हिन्दूकुशतक तथा मकरानसे ब्रह्मदेशतक अपने भुजबल तथा बुद्धि बलसे बनाया विस्तृत भारत साम्राज्य इस सत्यको प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त है।