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सभामं शत्रु से नीति
चाहिये । शत्रुके मनमें रोष पैदा करनेवाली उसकी व्यक्तिगत निन्दा करना हानिकारक है । इस प्रकार असंयत छेडछाडका परिणाम यह होगा कि वह रुष्ट होकर तुम्हें अपमानित करनेवाली मर्मभेदी बातें कहनेपर उतर आयेगा और तत्र सभाके वार्तालापका उद्देश्य ही धूल में मिल जायगा ।
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किन्हीं निश्चित आलोच्य विषयोंपर सभाकी सम्मति पानेके लिये ही सभाका अधिवेशन नियत किया जाता है । सभाके अधिवेशन के समय किसीको भी सभा आलोच्य प्रसंगसे बाहर कोई बात करने का अधिकार नहीं होता । यदि कोई वक्ता सभाके आलोच्य विषयसे बाहर बातें करने लगे तो वह सभाके साथ धृष्टता करनेका अपराधी बनजाता है । वह अपनी इस प्रवृत्ति से समासे बहिष्कृत होने योग्य बनकर अपनी ही हानि करलेता है | सभा अधिवेशन में परस्पर शत्रुता रखनेवाले दोनों पक्ष किसी विशेष कारणसे ही उपस्थित होते हैं। शिष्टाचार चाहता है कि दोनों शत्रुपक्षों को समा उपस्थित कर देनेवाले उस विशेष कारणका ध्यान रखकर अपने से शत्रुता रखनेवाले पश्च के साथ भी समामें अन्य सदस्योंके समान ही व्यवहार करे । शिष्टाचार तो यहां तक चाहता है कि यदि वह सभा शत्रुके अपराध पर विचार करनेही के लिये एकत्रित हुई हो तब भी उस विचारको निष्पक्ष विचारकोंके ही अधीन रखना चाहिये | उस विचारमें अभियुक्त (अपराधी ) के विपक्षको निर्णय देनेका अधिकार नहीं देना चाहिये | अभियोक्तापक्ष अभियुक्तपक्ष के साथ किसी प्रकारका अशिष्ट बर्ताव करने या उसके साथ सीधा कोई व्यवहार करनेका कोई अधिकार नहीं रखता । शत्रुपक्षके साथ व्यक्तिगत यथोचित व्यवहारका क्षेत्र सभाले बाहर होता है सभा नहीं । सभामें शत्रुके साथ सत्यरक्षा के नाम पर जो मो कोई बरताव किया जाता है वह असत्यविरोधरूपी सत्यनिष्ठा ही होता है । सभा अधिकार पर हस्तक्षेप न करके समाकं निष्पक्ष निर्णयको सुगमता से प्रभावशाली रहने देना ही सभा के प्रसंगके अनुकूल सत्यनिष्ठाका रूप होता है । सभाकी उपेक्षा करके सभास्थल में शत्रुके प्रति व्यक्तिगत विद्वेषका
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