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चाणक्यसूत्राणि
प्रदर्शन करना सभाका अधिकार बलात् अपहरण करनेवाली असत्यकी दासता है।
( शत्रुका सर्वनाश करना मानवीय कर्तव्य )
शत्रुव्यसनं श्रवणसुखम् ।। २८० ॥ शत्रुकी विपत्ति थुतिमधुर होती है । विवरण- अपने शत्रुको विपन्न करडालना ही सत्यनिष्ठ विजिगीषुके सफल कर्तव्यका एकमात्र ध्येय रहता है । कोई विजिगीषु असत्यदलनका अहंकार भी करे और असत्य मार्गपर चलनेवाला उसका शत्र विपन्न न होकर सम्पन्न अर्थात् अपने भौतिक शक्तिके घमण्डमें निश्चिन्त बना रह जाय तो समझना चाहिये कि उसका शत्रुदमनका कर्तव्य पालित रह रहा है । विजिगीषुको तो शत्र के साथ प्रतिक्षण वह बर्ताव करके हर्षित रहना चाहिये जिससे उसके शत्रका जीवन पग-पगपर कण्टकाकीर्ण होता रहे । सत्यनिष्ठ व्यक्तिकी दृष्टि में शत्रके व्यसनके श्रवणसुख होनेका यही रूप है।
परस्पर शत्रुता रखनेवाले दोनों पक्ष एक-दूसरेको मिटानेका ही उद्देश्य रखते हैं। यही उनकी शत्रताका अभिप्राय होता है। सत्य और मिथ्यामें वध्यघातक संबंध सदासे चला मारहा है। दो विवादमानों में एक सच्चा और दूसरा अन्यायी होना अनिवार्य है । सत्यनिष्ठ व्यक्ति असत्य को मिटाकर अपने जीवनव्यवहारमें सत्यको ही विजयी बनाये रखने का विचार रखता है। उसके इस लक्ष्य में विघ्न डालनेवाला ही उसका शत्रु होता है जिसे वह मूर्तिमान् असत्य माना करता है । सत्यनिष्ठ व्यक्ति अपने शत्रको मिटाना चाहता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि शत्रुकी विपनस्थिति उसके असत्य दमन रूपी उद्देश्य के अनुकूल होनेसे उसके लिये सुखप्रद होती है। परन्तु असत्यनिष्ठ व्यक्तिपर काकतालीयन्यायसे आपत्ति आई देखकर प्रसन्न हो जानामात्र सत्यका विजयोल्लास नहीं कहा जासकता।
सत्यके बल से असत्यका दमन करचुकना ही सच्चा विजयोल्लास या विजयोल्लासकी योग्यता है । सत्यनिष्ठके हृदयमें इस विजयोल्लासका प्रत्येक