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धनहीनतासे बुद्धिनाश
क्षण विद्यमान् रहना ही उसे असत्यविरोध प्रेरित करते रहनेवाला विश्व. विजयी अस्त्र है । सत्यनिष्ठ विजिगीषु इस विजयोल्लासको बाह्य प्रदर्शनका विषय कभी नहीं बनाता । वह तो प्रतिक्षण अपने हृदय में सत्यकी महिमा तथा असत्यनिष्ठकी भवनति ( दुःखमयी स्थिति ) दोनोंको एक ही नेत्रसे देखता रहकर प्रसन्नता मनाता रहता है। उसका शत्रु असत्यकी दासता करके प्रतिक्षण मनुष्यताको तिलांजलि देता रहकर विनष्ट होचुका होता है। उसकी दृष्टिमें उस शत्रके पांचभौतिक देहका विनाश उपेक्षाका विषय रहता है । यदि उसके पांच भौतिक देइके विनाशको ही सत्यका विजयोल्लास माना जाय तो उसके पांचभौतिक देहका विनष्ट न होना विजिगीषु के लिये दुःख. दायी मानना पडेगा। तब तो जबतक शत्र जीवित है या सत्यनिष्ठसे अधिक भौतिक बलवाला है तबतक सत्यनिष्टके हृदय में सत्यका विजयो. लास मनपस्थित स्वीकार करना पडेगा तथा तबतक स्वयं सत्यमें सुखाभावरूपी दुःख स्वीकार करना पड जायगा । परन्तु सत्यकी अनुपम मधुरता में दुःखको स्थान नहीं है । शत्रु चाहे जीता रहे, भर जाय, विपद्ग्रस्त होजाय या निर्विघ्न रहे, सत्यनिष्ठ व्यक्ति तो अपने सत्यकी महिमासे प्रत्येक क्षण सखप्लागर में निमग्न रहता है। उसके सुखदुःख शत्रुके भौतिक विनाश अविनाश पर निर्भर नहीं होते । सत्यनिष्ठकी सुखमयी स्थिति में दुःख की अत्यन्त निवृत्ति होचुकी होती है।
(धनहीनतामे बुद्धिनाश)
अधनस्य बुद्धि न विद्यते ॥ २९१ ।। धनहीन व्यक्तिकी बुद्धि नष्ट होजाती या प्रसृत होनेके अवस. रोसे वंचित होजाती है।
विवरण-- अर्थाभावसे जीवनयात्राकी चिन्तासे व्याकुलता बने रहनेसे बुद्धि मन्द पढ जाती तथा प्रतिभा सो जाती है । निर्धनताकी स्थिति में बुद्धिको नाश निराश न होने देकर स्थिर रखना धनहीन मनुष्य का कर्तव्य
१७ : चाणक्य.)