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चाणक्यसूत्राणि
हुमा करते हैं । सुअवसर कभी कभी माया करते हैं। सुअवसर सदा प्रार्थनीय और सदा उत्पादनीय होते हैं। परन्तु मनुष्यको सुखके भ्रममें दुःखको नहीं अपना लेना चाहिये। मनुष्य यह जाने कि इस संसारमें सुखकी मूरत लगाकर संसारको ठगते फिरनेवाले दुःखों की न्यूनता नहीं है।
( दुःख मनुष्यकी स्वेच्छास्वीकृत व्याधि )
स्वयमेव दुःखमधिगच्छति ॥ ४६३ ॥ मनुष्य स्वयं ही अपने दुःखोका कारण बना करता है दूसरा नहीं।
विवरण-दुःख मनुष्य के अज्ञानसे उत्पन्न हुमा रोगमात्र है। मनुष्यको बाहरवाला कोई दुःख देता है यह उसकी मूढ धारणा है। मनुष्य के पास तत्वज्ञान नामकी एक ऐसी कला है कि वह संसारभरके दुःखों को शर्करालिप्त भोज्यों के मधुर बन जाने के समान सुखरूप में परिवर्तन कर देती है। दुःखको सुख बनाने की जो कला है वही तो तत्वज्ञान है । मनुष्य तस्व. ज्ञानी न होने तक तो दुःख भोगता और तत्वज्ञान होजानेपर दुःखके प्रश्नको समाप्त पाता है। यदि तत्वज्ञान होजानेपर भी दुःखका प्रश्न समाप्त नहीं हुआ तो निश्चय जानो कि तत्वज्ञान वास्तविक नहीं है।
श्रम या दानसे लेना भी लेना है और चोरीसे लेना भी लेना है । लेना एक समान होनेपर भी एक लेना सुखका कारण तथा दूसरा लेना दुःखका कारण होता है। उचित मार्गसे आये धनसे मनुष्य सुख पाता तथा अन. धिकारपूर्वक ( अर्थात् चोरी, माया, वंचना मादि गर्हित उपायोंसे ) आये धनसे अपनी ही भूलोंसे दुःख भोगता है। लेना समान होनेपर भी लेनेकी दुर्नीतिसे दुःख तथा लेनेकी सुनीतिसे सुख होता है । लेनेकी दुर्नी. तिसे होनेवाला दुःख उसे किसी दूसरेके देनेसे नहीं होता। इस दुःखका तो मनुष्य स्वयं ही विधाता है । सचमुच मनुष्य स्वयं ही अपने अच्छे बुरे भाग्यका एकमात्र विधाता है ।