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दण्डका परिमाण
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राज्याधिकार पाकर राष्टको अपनी आसुरिकताका ताण्डवक्षेत्र बनाये बिना नहीं मानता । इस दृष्टिसे ज्ञानीसमाजका कर्तव्य है कि वह राष्ट्रसेवार्थीके ज्ञान अर्थात् हृदयशुद्धिका पूरा परिचय पाये बिना उसे समाजकल्याणसे संबन्ध रखनेवाले राष्ट्र सेवाक्षेत्रमें सम्मिलित न करे या न होने दे। यह बात भी ज्ञानीके स्वभावके विरुद्ध है कि वह मज्ञानियों के साथ समझौता करके मिली-जुली राष्ट्रसेवामें उनका सहयोग करे या उनसे सहयोग प्राप्त करे। बात यह है कि सेवा मात्मसन्तोष दिलानेवाली है । पद-पद पर विरोध
पस्थित करते रहनेवाले अज्ञानीके साथ सम्मिलित होना ज्ञानीके स्वभावके विरुद्ध है। विचारोंकी एकता दी मिलनकी कुंजी है। ज्ञानी अज्ञानीके स्वभाव पूर्व-पश्चिमके समान सर्वथा भिन्न होते हैं । विचार मनष्यके स्वभावका ही प्रतिनिधित्व करता है । विचारों का पूर्ण परिचय पाये बिना किसीके स्वभावका परिचय होना असंभव है।
( दण्डका परिमाण)
अपराधानुरूपो दण्डः ।। ३२८॥ दण्ड अपराधके अनुरूप होना चाहिये। विवरण- गुरु अपराधमें लघुदण्ड, लघुमपराधमें गुरुदण्ड, निरपराधको दण्ड, तथा सापराधको मदण्ड होनेसे समाजमें क्षोभ तथा अनीति फैलती है । दण्डन्यवस्था न होनेसे लोकमें मात्स्यन्याय ( बड़ी मछलीका छोटियोंको खालेना-शक्तिमानोंका निर्बलोंको उत्पीडित करने लगना ) चल पडता है तथा राष्ट्र अराजक होजाता है। दण्ड प्रजाकी रक्षा तथा सुशासन बनाये रखने में अत्यावश्यक साधन है ।
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वाः दण्ड एवाभिरक्षात । दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्म विदुर्बुधाः ॥ (मनु) दण्ड ही प्रजा पर शासन तथा उसकी रक्षा करने वाला है। वह सोते. हुओं में भी जागता है। इसलिय विद्वान् लोग (धर्मको धर्म न कहकर धर्मका संरक्षक होनेसे ) दण्डको ही धर्म कहते हैं ।