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________________ चाणक्यसूत्राणि अदण्ड्यान् दण्डयन राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन् । अयशो महदाप्नोति नरकञ्चाधिगच्छति ॥ मण्डनीयोंको दण्द देता तथा दण्डनीयोंको दण्ड न देताहुमा राजा अपयश पाता तथा अदण्डित होनेसे उदण्ड बने हुए अपराधियोंकी बुलाई विपत्ति में फंसजाता है । दण्ड अपराधीका अनिवार्य प्राप्य है। अपराधी अपराध करके अपने माप दण्डका आह्वान करता है। पापीके दंडित होनेके मूलमें दण्डदाताका कर्तापन न होकर अपराधीका ही कर्तापन रहता है। पापी ही स्वयं दण्डदाताको दण्ड देने के लिये विवश करता है। जैसे अनुचित कठोरदण्ड प्रजामें अशुभ प्रतिक्रियाका उत्पादक होनेसे उत्तेजना फैलानेवाला होता है, इसीप्रकार मृदुदण्ड भी पापोत्तेजक होनेसे हानिकारक होता है। वधोऽर्थग्रहणं चैव परिक्लेशस्तथैव च। इति दण्डविधानदण्डोऽपि त्रिविधः स्मृतः ॥ दण्डविधिके ज्ञाता वध, अर्थग्रहण तथा शरीरके बन्धन, ताडन, मसना, निन्दा मादि भेदसे दण्डको तीन प्रकारका कहते हैं। दण्डके संबन्धमें विशेष जाननेके लिये अर्थशास्त्र, युक्तिकल्पतरु, भार्गवनीति, महाभारत, राजधर्म आदि देखने चाहिये। ( उत्तर कैसा हो ?) कथानुरूपं प्रतिवचनम् ।। ३२९॥ प्रत्युत्तर प्रश्नके अनुरूप होना चाहिये। विवरण- अविश्वासपात्र लोगोंके प्रश्नों का उत्तर देते समय निम्नप्रकारसे सोचना चाहिये । प्रश्नसे अधिक उत्तर देनेसे मनके वे गुप्त तत्व, जिन्हें अनधिकारीको नहीं बताना चाहिये, मुंइसे निकलपडते हैं तथा हानि करते हैं । प्रश्नका उत्तर संयत भाषामें अपने तथा प्रश्नकर्ताके अधिकारको पूरा विचारकर देना चाहिये कि प्रश्नकर्ताको मुझसे इस बातका उत्तर लेने
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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