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आशाके दास सदा अधीर
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'दुरधिगमः परभागो यावत्पुरुषेण पौरुषं न कृतम् ।'
जबतक मनुष्य पुरुषार्थ नहीं करता तबतक श्रेष्ठपद, महत्व या परिस्थिति पर विजय नहीं पाता।
( आशाके दास सदा अधीर )
आशापरे न धैर्यम् ॥ ५०५॥ आशापरायण व्यक्तिके पास स्थिरघुद्धितारूपी धैर्य नहीं होता।
विवरण- आशाका दास धीरज खोये बिना नहीं मानता। व्यावहारिक जगत में माशाका स्थान होने पर भी उसकी मर्यादायें भी तो हैं । दुःखरहित होकर सुसंपादित कर्तव्य के उचित भौतिक परिणामतक माशाको सीमित रखना चाहिए । निर्माद आशा तो मनुष्य की मनुष्यताका भयंकर शत्रु है। निर्मर्याद माशावाला मार्ग कुमार्गसे उपार्जनमें प्रवृत्त होकर संसारमें आग लगा डालता है । वह धीरज नहीं रख सकता। कर्तव्यनिष्ठ, दुराशासे अनभिभूत लोग ही धीरज रख सकते हैं। धीरजके बिना सुखशान्ति दोनों असंभव हैं । भाशा पूरी न हो तो जीवनको निःसार मान बैठने वाले पर धीरज अर्थात् सत्यार्थ जीवन-धारण करनेवाला विवेक नहीं होता । आशापर निर्भर रहनेवाला मानव स्पीसे बंधे पशु के समान हाशारूपी रश्मियोंसे बँधा रहकर कर्तव्यसे बचता भीर अकर्तव्य किया करता है।
कर्तव्य का स्वभाव है कि वह कुछ न कुछ भौतिक हानि किये विना पूरण नहीं होता । माशाका दास मकतन्यसे भौतिक लाभोंकी संभावना देखकर उसी मोर झुक जाता है । कर्तग्यसे बँधनेवाले लोग दुराशासे कभी नही बैंधते। उन्हें उनके कर्तव्यपालनका फल मिले या न मिले वे तो कर्तव्य.. पालनका संतोषरूपी फल हाथ में लेकर कर्तव्य-बुद्धिसे कर्म करते चले जाते हैं । उनकी दृष्टि में अपना कर्तव्य पूरा कर लेना ही उनकी कृतार्थता होती है । मनुष्य जबतक इस दृष्टि से कतय करना नहीं सोनेगा और कम्यके