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मन्त्रीकी नियुक्ति
ही अपना शत्रु है। स्वयं अपने मित्र बने हुए सत्य के प्रेमी लोग शरीरोंसे पृथक् होनेपर भी एक दूसरेके स्वरूप होने के कारण, स्वाभाविक मित्र होते हैं । इन लोगोंका मित्रत्वबन्धन सुरढ माध्यात्मिक आधारोंपर माधारित होनेके कारण अटूट अभ्रान्त तथा अनन्तशक्तिमान् होता है । मित्रकी इस परिभाषाका समर्थन ऊपरवाले सब लक्षणोंसे प्रमाणित होजाता है। इनमें से एक वचनकी सत्यतापर विचार करनेसे ही सब वचनोंकी सत्यता स्वयमेव प्रमाणित हो जायगी। जैसे हाथ शरीरकी और पलक नेत्रकी रक्षा बिना विचारे स्वभावसे करते हैं, इसी प्रकार जो व्यक्ति अपनाये हुए दूसरे व्यक्तिको बिना विचारे सब समय रक्षा करनेको अद्यत रहता है, वही मित्र है। शरीरपर आई विपत्ति में शरीरकी रक्षा करना हाथकी मात्मरक्षा ही है । पलकके लिये मांखकी रक्षा करना पलककी आत्मरक्षा ही है।
इस रक्षाप्रवृत्ति में हाथ और पलक दोनों की स्वाभाविकता है । इसलिये है कि यहां अपने परायका विचार करने का अवसर ही नहीं है । अपने आपमें भेदबुद्धि न होनेके कारण ही यहां विचारका अवसर नहीं पाता। मनुष्य अपनेपर विपत्ति आनेपर स्वभावसे उसे हटानेको उद्यत होजाता है। जो इस विपद्को हटानेको उद्यत होजाता है वह कौन होता है ? विपन्न व्यक्ति स्वयं ही अपना विपदुद्धारक बनजाता है। मनुष्यका अपना मन ही अपने ऊपरसे विपद्को हटाने के लिये स्वभावसे विवश होता है । जब मनुष्यका मन सत्यको अपने स्वरूपके रूपमें पहचान लेता है तब वह सत्यस्वरूप बनकर अपना मित्र बन जाता है। वही मन सत्यसे हीन बनकर अपना शत्रु बनजाता है। सत्यहीन दलबद्ध राष्ट्रों, राजनैतिक व्यक्तियों तथा स्वभावज अथवा भौतिक स्वार्थ रखनेवाले संबंधोंसे संबद्ध मनुष्यों तथा लूटनेवाले डाकुओंके समूहों में सत्यका अभाव होनेके कारण ये सब लोग एक दूसरे के मित्र कहलाने लगनेपर भी शत्रु ही होते हैं । मित्र केवल सत्यनिष्ठ व्याक्तियोंमें ही उत्पन्न होने और मिलने संभव है। जब कोई भी व्यक्ति अपनी सत्यनिष्ठाके कारण विपत्ति में फंसता है तब संपूर्ण सत्यनिष्ठ समाज उस विपत्तिको अपने ऊपर माई विपत्ति मानकर उसका मित्र बनजाता है और