________________
अत्याचार मत करो
पापोंका निवारण होसकता है, इसलिये किसी कल्याणकामी राष्ट्रको इन विरल उदाहरणोंको क्षुद्र घटना न मानकर असंशोधित नहीं छोडना चाहिये। यदि कोई राष्ट्र इस प्रकार के विरल उदाहरणों को सह रहा हो तो उसे न तो समग्र राष्ट्रकी सहनशीलता मानना चाहिये और न इस सहनशीलताका यह मर्थ मानना चाहिये कि राष्ट्र इन राजकीय अत्याचारोंका समर्थन कर रहा है। बात यह है कि अत्याचार सत्याचारितकी दृष्टि में कभी भी सह्य नहीं होता । राज्याधिकारी लोग इस सत्यको ध्यानमें रखकर अपने आपको प्रजामें सम्मिलित माने तब ही ने न्यायपूर्वक दण्डधारण कर सकते हैं।
बाधा या आक्रोश अनिष्टकारियों को ही पहुंचाना चाहिये । निरपराध क्षमाशीलको नहीं । बम र प्रायः मारते के सारो और भागते के पीछे दौडने. वालोंका हो साधिक्य है। कायर लोग भागने तथा सहनेवालोंपर ही अपनी कापुरुषताको छिपाने वाली मिथ्या वीरताका प्रदर्शन किया करते हैं। परन्तु यह प्रवृत्ति प्रकटले शून्य नहीं है । इसलिये नहीं है कि सहन की भो तो सीमा होती है। जब अतिपीडित मनुष्य जीवन और सुखोंसे निराश होकर, जान पर खेलकर प्रत्याक्रमण करनेपर विवश होजाता है, तब वह अजेय और अप्रतीकार्य होता है : निर्दयतासे मारा था तो पत्यरतक आगके विकु. लिंग उगल र अपना रोष कट करता है। दूसरों के साथ मानवाचित बर्ताव करने में ही मानवकी शक्तियों को साथ कता तथा कल्याण है। श्री बल्लभदेवने कहा है.----
क्षमया आजवनैव दयया च सनीपथा। कौशलेन च लोकानां वशीकरणमुत्तमम् ॥ अमा, ऋजुता, दया, सद्भावना तथा कौशल से ही लोगोंका उत्तम वशी. कार होता है।
( अधिक सूत्र) चन्दनादपि जातो वहिनदहत्येव । जैसे सुशीतल चन्दनस उत्पन्न आंग्न भी दाह करती हैं, इसा प्रकार सहनकी सीमा पार होजानेपर सहनेवाले ठंडे लोगोंमेंसे