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चाणक्यसूत्राणि
करना चाहिये | इसलिये करना चाहिये कि जब प्रजाकी यह असीम सहनशीलता अपनी सीमा पार कर जाती है तब इसका राजविद्रोहके रूपमें व्यक्त होना अवश्यम्भावी होजाता है ।
राजदण्डको प्रजाका हार्दिक समर्थन मिलता रहे, यही तो उसका औचित्य है और यही उसकी सहन योग्यता भी है । जबतक राजा लोग अपने हितको प्रजाके हितसे अभिन्न समझते रहते हैं तबतक राजदण्ड अपनी मर्यादा उल्लंघन नहीं करपाता और सह्यतासे भी बाहर नहीं निकल पाता । तब राजदण्ड सत्यतुलापर तुल-तुलकर पक्षपातहीन होकर अपने यथार्थ रूपमें रहता है । परन्तु दुर्भाग्य से प्रायः राज्याधिकारी लोग राज्याधिकार पाकर आत्मविस्मृतिके कीचडमें फँस जाते हैं और अपने स्वार्थको प्रजाति से अलग मानकर अपनेको प्रजा में सम्मिलित न रहने देकर राज्यका एकाधिकार जानेवाले उच्च सिंहासनारूढ शासक जातिके लोग बनजाते हैं । तब ये लोग अभियुक्त साथ जो बर्ताव करते हैं वह अनिवार्य रूपसे व्यक्तिगत शत्रुताका रूप धारण करलेता है। ऐसे राज्याधिकारियोंकी दृष्टिमें अपराधकी कसोटी ही बदल जाती है। ऐसे राज्याधिकारियोंके व्यक्तिगत स्वार्थका विरोध करनेवाले बर्ताव ही अपराध की श्रेणी में गिने जाने लगते हैं। ऐसे राज्याधिकारी लोग यद्यपि ऊपरसे देखने में व्यक्तियोंको ही अन्याय से दण्ड देते दीखते हैं, परन्तु वे अन्याय - दण्डित इकले- दुकले व्यक्ति ही राजाको प्रजाकी दृष्टिमें अन्यायी सिद्ध करके राज्याधिकारियोंको सम्पूर्ण राष्ट्रका शत्रु बना देते हैं । प्रजाकी दृष्टिमें आये हुए राजदण्ड के दुरुपयोग के ये इक्के-दुक्के उदाहरण ही राज्यभर में होनेवाले असंख्य उदाहरणोंके प्रतिनिधि बनकर राज्याधिकारियोंको प्रजाकी घृणाका पात्र बना देते हैं ।
इस प्रकार के विरल उदाहरणसे यह नहीं माना जासकता कि राष्ट्र में सर्वत्र ऐसा राजकीय पाप नहीं होरहा है। राष्ट्रमें इस प्रकार के विरल उदारहणोंसे ही समग्र राष्ट्रका अन्याय- पीडित होना सिद्ध होजाता है । क्योंकि इस प्रकारके विरल उदाहरणका प्रतिकार करनेसे ही समग्र राष्ट्रव्यापी