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घटनास्थलके दर्शनका महत्व
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तिका प्रत्यक्ष ज्ञान होना अनिवार्य रूपसे आवश्यक है । मनुष्य चक्षुसे मार्ग देखकर ही स्थूल देहको गन्तव्यस्थानमें ले जाता और भगन्तव्यस्थानसे बचालाता है। मनुष्य चक्षुसे देखकर ही ग्राह्यको ग्रहण करतां तथा त्याज्यको त्यागता है। प्रत्यक्ष अनुभूति ही मानवजीवनको सुमार्गपर चलानेकी भव्यर्थ कला है । चक्षु, कर्ण, नासिका, जिह्वा तथा स्वगिन्द्रियों की स्वस्थ क्षेत्रकी अनुभूति ही उनकी जीवितावस्था या उनकी चक्षुष्मती स्थिति है। मनुष्य किसी भी कन्यको देश, काल, पात्रका प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किये बिना अभ्रान्त रीतिसे सुसम्पन्न नहीं कर सकता । सूत्र चक्षुको मिष बनाकर यह कहना चाहता है कि किसी भी व्यक्ति के साथ ग्यवहार या किसी भी कर्त. न्यमें हस्तक्षेप तबतक न किया जाय जबतक मनुष्य अपने ज्ञाननेत्रसे उस व्यक्ति या उस कर्तव्यकी सभ्रान्तताके संबंध निःसन्दिग्ध न होजाय । क्योंकि दर्शनशक्ति संपूर्ण इन्द्रियों में सूक्ष्म रूपमें विद्यमान रहती है इसी. लिये इस सूत्र में चक्षुको ही निमित्त बनाकर यह निर्देश किया है कि प्रत्यक्ष प्रमाणके बिना सत्यासत्यका निर्णय नहीं होसकता। मनुष्य यह जाने कि मानवका जीवन एक विशाल संग्रामभूमि है। मनुष्य अपने जीवनसंग्राममें अपने ज्ञाननेत्रको मार्गदर्शकके रूपमें आगे करके जीवनसंग्राममें पदार्पण करे ।
चक्षुर्हि शरीरिणां नेता ॥ ४०४॥ ज्ञाननेत्र ही मनुष्यको विपथसे निवृत्त करनेवाला एकमात्र ज्योतिर्मय पथदर्शक है।
विवरण--- चक्षु ही देहधारियोंका नेता है । इसीसे उसका नाम नेत्र है। सूक्ष्म स्नायुओंसे प्रवाहित, मक्षिगोलकके भीतर कृष्णतारेके अग्रभागमें रूपग्रहण करनेवाले तेजवाली इन्द्रिय चक्षु है।
अपचक्षुयः किं शरीरेण ॥४०५॥ नेत्रहीन शरीरसे संसारयात्रा क्लेशप्रद होजाती है। विवरण- जैसे अंधेका देह निरुपयोगी हो जाता है इसी प्रकार अज्ञा. नान्धका जीवन लक्ष्यभ्रष्टतारूपी विनाश पाजाता है । नेत्रहीन मानव सारथिहीन रथके तुल्य कार्यकारी होजाता है ।