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चाणक्यसूत्राणि
अधिकार नहीं है इसीलिये अकर्तव्य है । इस दृष्टि से अपने राष्ट्रके आपसि कालका प्रत्येक कर्तव्य धनके सदुपयोगका अवसर बन जाता है । यह अवसर अपनी व्यक्तिगत दैहिक, पारिवारिक या सामाजिक आवश्यकताओंको पूरा करने या अभावको दूर करनेके रूप में उपस्थित होता है। समाजके विपदप्रस्त सत्यनिष्ठ व्यक्तिर्योकी भौतिक आवश्यकतायें भी सामाजिक आवश्य कतायें होती हैं । ऐसे अवसर उपस्थित होनेपर अपने धनको अपनी व्यक्ति गत संपत्ति न मानकर उसपर सत्यका अधिकार स्वीकार करके उसके तारकालिक सदुपयोग के द्वारा सस्यकी सेवा करने का आत्मसन्तोष प्राप्त करना मनुष्यकी लक्ष्यारूढता कहाती है । इसके विपरीत व्यवहार करना लक्ष्यहीनता या लक्ष्य भ्रष्टता है ।
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जिस देश में प्रजाको साधारण आर्थिक स्थिति आवश्यक संचय न कर सकने योग्य हो गई हो वहाँ समझना पडता है कि प्रजाके उपार्जनपर शासन व्यवस्थाकी कुदृष्टि है और उसकी शोषणनीति प्रजाकी रक्षक न रहकर भक्षक बनी हुई है। प्रजाकी निकृष्ट तथा उत्कृष्ट आर्थिक स्थिति राजशक्तिकी योग्यता- अयोग्यता, प्रबन्ध-पटुता, प्रबन्ध-हीनता, लोभ, निर्लोभ आदिपर निर्भर करती है। कोटलीय अर्थशास्त्र में कहा है
तस्मात् प्रकृतीनां क्षयवरागकारणानि नोत्पादयेत् ।
राजा अपनी ओर से प्रजाके धन क्षय, तथा रोष के कारण उत्पन्न न करे । राजा अकरणीय करके तथा करणीयको त्यागकर, दातव्य न देकर, तथा अग्राह्य लेकर, अपराधीको दण्डित न करके निरपराधको दण्ड देकर प्रजाको चोर डाकुओं से न बचाकर लोगोंकी निरापदताको सुरक्षित रखने में प्रमाद करके प्रजाको असन्तुष्ट, दरिद्री तथा लोभी बना देता है । राष्ट्र-कल्याणकी दृष्टिसे राजाका कर्तव्य है कि वह प्रजाके धन-भंडारका शोषक न होकर उसे भरपूर रखने के भरसक प्रयत्न करे। प्रजाकी दरिद्रता राजा या राज्य · व्यवस्थाका ही अपराध है । यहीं कारण है कि राजशक्तिको प्रजाके अकस्मात्, अपहृत और दरिद्र हो जानेपर उसे अपहृत और दरिद्र हो जाने