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अधिक भार उठाने से हानि
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भ्रान्त सुख और अभ्रान्त सुखके भेदसे सुखकी भी दो श्रेणी हैं। उन्हींको कल्पित और अकल्पित सुख भी कहा जाता है । भ्रान्त सुखके लिये कर्म करनेवालेका कल्पित सुख, कर्म करने में नहीं होता किन्तु कर्मके परिणाम के रूपमें आनेवाली अनिश्चित अप्राप्त अधिकारबाह्य वस्तु ही उसका सुख होता है | क्योंकि उसका अभिलषित सुख उसके अधिकार में नहीं है और उसके मिलने का कोई निश्चित आश्वासन भी नहीं है, इसलिये उसकी मान सिक स्थितिको या तो दुःख या सुखाभाव इन दोनोंमेंसे किसी भी एक नामसे कहना पडता है । इनके विपरीत दूसरे वे लोग हैं जो अभ्रान्त सुख से सुखी होकर अर्थात् सुखेच्छु न रहकर प्रतिक्षण कर्म करते हैं । इन लोगों की दृष्टिमें इनका कर्म स्वयं ही सुखरूपी लक्ष्य होता है। इन लोगों के मन्तव्य में उस कर्मको न करना ही दुःख माना जाता है । सुखके लिये कर्म करने वाला सदा ही अकर्तव्यपरायण होता है। जो सुखके लिये किया जाता है वी अकर्तव्य होता है । सुखलोभीका अकर्तव्यपरायण होना अनिवार्य है अकर्तव्यपरायण होना ही अतिभाराकान्त बन जाना है । कर्तव्य पहचानना ही समस्त विद्याओं का सार है । कर्तव्य पहचानने के पश्चात् फिर कोई भी कर्म मनुष्य के लिये भार नहीं बनपाता। कर्तव्यको कर्तव्यरूप में पहचान ही वही स्वयं सुखस्वरूप ध्येय बन जाता है। फिर उसके कर्ममें अवसाद रूपी दुःख कभी भी उपस्थित नहीं होता। अवसादरूपी दुःख तो अकर्तव्यमें हो जाता है ।
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शक्तिले बाहर कर्मभार पुरुषकर्मत्साह तथा कर्म दोनोंको नष्ट कर देता है । शक्ति ही बोझ उठानेकी मर्यादा है । शक्तिसे बाहर कर्ममार स्वयं उठाना या किसीपर लाइना कर्तव्यसे अपरिचय तथा कर्तव्यष्टता है कर्तव्य यदि सचमुच कर्तव्य है तो उसका सामर्थ्याधीन होना अनिवार्य है । कर्तव्यनिष्टको सामर्थ्याधीन कर्तव्य में अटूट उत्साह रहता है। वह कर्तव्यपालनकी सन्तोषरूपी सफलताको हस्तगत देखता रहकर विजयोल्लास से परिपूर्ण रहता है। मनुष्यको सामर्थ्यबहिर्भूत अर्थात् फलाकांक्षी बनकर कर्तव्य नहीं अपनाना चाहिये। क्योंकि फल मनुष्यकी शक्तिके अतीत