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चाणक्यसूत्राणि
अपने व्यक्तिगत सुखोंपर मरनेवाला भोग लोभी व्यक्ति नहीं है। वह तो अपने को सामाजिक शृंखलाली रक्षामें लगाये रखकर समाजमें अपना सम्मानपूर्ण स्थान बनाये रखने लिये सपस्वी जितेन्द्रिय जीवन बिताने के लिये बाध्य है। चाणक्य के सिद्धान्तमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता नामकी ऐसी कोई स्थिति नहीं है जो धर्मकी सीमाको लांघनेका दुःसाहस कर सकती हो। वे धर्मको मीमाके भीतर ही ध्यानकी स्वतंत्रता मानत हैं।
चाणक्य प्रजाको जीवनरक्षा संबन्धी प्रत्येक आवश्यकता पूरी करनेकी प्रत्येक सुविधा दन राजाका कर्तव्य मानते हैं। उनके विचार के अनुसार राजा पनेको जनताका सेवकम समझे। समाज के प्रभावशाली ज्ञानी लोग अपनेको जनताके अभिभावक माने और बनकर रहें । राजा समाज के प्रभावशाली ज्ञानियोंका सहयोग पाये विना, स्वेच्छाचारसं राजशक्तिका प्रयोग न करें । काटल्यको राज्यसंस्था समाजको संत्रस्त, नपुंसक तथा नीतिहीन बनानेवाले दण्डभय (पशुशक्ति ) पर आश्रित नहीं है किन्तु समाजके स्वतंत्र कर्तव्यपरायण तथा नैतिकतारूपी शान्तिके मार्गपर आरूढ कर देने. वाली बुद्धिशक्ति पर आश्रित है। राजाका प्रजाके सुख तथा कल्याणमें ही अपना सुख तथा कल्याण ढूंढनेवाला होना चाहिये । अपना व्यक्तिगत सख राजा नाम पा जानेवालेका सुख नहीं रहता, किन्तु प्रजाका सुख ही राजाका सुख बन जाता है । कौटल्यके राजाका कतव्य है कि वह जीवनभर प्रजाके सम्मुख इन्द्रियविजयी होकर अपनी सच्ची कल्याणबुद्धि तथा समाजको हित. कामनाके प्रमाण जीवनभर उपस्थित किया करे । कौटल्यके अनुसार राजा ही राज्यका मुख्य नागरिक है। क्योंकि कौटल्यका राजा प्रजासे योग्य तम न्यक्ति मानकर छांटा हा व्यक्ति है इसलिये उसमें नागरिकताके संपूर्ण गुण अपनी पूर्णावस्था तक विकास पाये हुए होने चाहिये । इसी कारण राजा राष्ट्रका मुख्य नागरिक है।
वह नागरिकतामें तो प्रजाके साथ मिला रहता है परन्तु राज्याधिकारका प्रयोग करते समय न्यायमूर्ति राजाका रूप धारण कर लेता है । वह नाग. रिकतामें प्रजाके साथ मिला रहकर ही राजभोगका अधिकारी बनता है।