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अनार्यसंबन्ध अकर्तव्य
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साथ नियामक ज्ञान चाहिये । इसका यह अर्थ हुभा कि संयम रखने तथा प्रतिकार करते रहने से मनुष्य के भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के दुःख हटाये जा सकते हैं । एक ही प्रकारके दुःखों के पीछे न पडकर दोनों ही प्रकारके दुःखोंको हटानेका समन्वित उद्योग करना मानवका कर्तव्य है।
अथवा-निर्वाण ( अर्थात् सुखदुःखसे अप्रभावित स्थिति लेकर उदार वीर व्यवहार-कुशल प्रशस्त जीवन बिताना ) ही दुःखोंकी यथार्थ चिकित्सा है।
बात यह है कि भौतिक दुःख इस संसारकी अटल घटना है। वे लाख हटानेपर भी मनुष्यके देहेन्द्रियोंके पास से नहीं हटते । उन्हें केवल मनसे हटाया जा सकता है । उन्हें मन में से हटाने का एकमात्र उपाय निर्वाण या मुक्तिकी स्थितिको अपनाय रहकर जीवन बिताना है । अपना कम्यपालन तो करना, परन्तु उस कतव्यसे किसी कामनाके बन्धनमें न रहना ही मुक्ति है। निष्काम स्थिति ही दुःखातीत स्थिति है। मनुष्यका जो दुःखरूपी भवरोग है वह सांसारिक सुख पानेसे नहीं मिटता । यह रोग तो तत्वज्ञान या साक्षात्काररूपी महोषधसे ही मिटता है । जीवन्मुक्तिकी अवस्थामें जीवन बिताने लगना हो संसारी तापोंको निवृत्तिका एकमात्र उपाय है। संसारी ताप मानव-जीवनमें से टल ही नहीं सकते। मनुष्य इन तापमयी घटनाओंको दुःखश्रेणीसे निकाल बाहर करे, इन्हें दुःखोंका नाम ही न देकर इन्हें प्राकृतिक घटनामात्र मानकर सुखदुःखातीत होकर उच्च मानसिक स्थितिमें कालयापन करे यही दुःखोंकी एकमात्र रामबाण औषध है। तत्वसाक्षात्कार रूप औषध के विना दुःखरोग कभी भी नष्ट होनेवाला नहीं है ।
(अनार्यसंबंध अकर्तव्य ) अनार्यसंबन्धादूरमार्यशत्रुता ॥ ४८६ ॥ अनार्योंसे सौहार्द बढानेसे आर्योंकी शत्रुता अच्छी है। विवरण- इसका अर्थ यह है कि मायावी, कपटी, धूर्त मित्रसे कतम्या. कर्तव्य-विवेकी शत्रु अच्छा होता है। मूर्ख ही मनुष्यसमाजका शत्रु है