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चाणक्यसूत्राणि
विवरण - राजा विचारणीय समस्या के अनुकूल, प्रतिकूल दोनों रूपों या करने न करने अथवा अन्यथा करनेके समस्त परिमाणोंपर दृष्टि डालने के लिये उपस्थित विचारणीय कर्तव्यका विरोध करनेवाली प्रतिकूल युक्तियों को भी विचारचक्षुके सामने ला लाकर अपने निर्णयको अभ्रान्त तथा अखण्डनीय रूप देकर कर्तव्यका निर्णय किया करे | वह इन कार्योंके विषय में अनुकूल, प्रतिकूल दोनों पक्षोंको स्वयं ही उपस्थित करनेवाला स्वयं ही सम्मति मांगने और स्वयं ही सम्मति देनेवाला द्विभागात्मक बन बन कर कर्तव्यका निर्णय किया करे ।
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किन्नु मे स्यादिदं कृत्वा किन्नु मे स्यादकुर्वतः । इति संचिन्त्य कर्माणि प्राशः कुर्वीत वा न वा ॥
बुद्धिमान् मनुष्य अपने उपस्थित कार्यके विषय में मैं इस कामको करूंगा तो उसका क्या परिणाम और प्रभाव होगा ? तथा न करूंगा और विपरीत करूंगा तो उसका क्या परिणाम और प्रभाव होगा ? यह सब पूर्णांग रूपसे विचार चुकनेपर उचित समझे तो करे और उचित न समझे तो न करे । मनुष्य गहनकार्योंके विषय में स्वयं ही दोनों पक्ष उपस्थित करनेवाला द्विभागात्मक बन बन कर कर्तव्यनिर्णय किया करे । इसी अभिप्राय से "" राजा प्रज्ञासहायवान् " कहा गया है । कर्तव्यकालमें कर्तव्यनिश्चय के लिये आत्माभिमुख होनेपर वहां से मन्त्रार्थी मनुष्यको एक निरपेक्ष मन्त्र या स्वतन्त्र सम्मति प्राप्त होती है । यह सम्मति मानवके अन्तरात्मासे प्रस्तुत होकर भाती है । इसीको "आत्मामें प्रतिमानीमन्त्रका उत्पादन " कहा जा रहा है ।
सूत्र कहना चाहता है कि विचारशील मनुष्य बाह्यमन्त्रणादाता के अभा में अपनेको असहाय न मान लिया करे और मन्त्रियोंपर कर्तव्यका समग्र भार डालकर समस्या से असंपृक्त न होजाया करे। वह समझे कि मन्त्रणादाता उसीके मन में सदसद्विचारबुद्धिका रूप लेकर रहरहा है । अपने हृदयस्थ उस मन्त्रणादाताको अपनी उभावनी शक्तिसे अपनी कल्पनामें जाप्रत करके अपने ज्ञानकणसे उसका अव्यर्थ उपदेश सुना करे और उससे कर्तव्यपालन में अभ्रान्त बने ।