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चाणक्यसूत्राणि
है । ये लोग अपनी इस भ्रान्त धारणा तथा भ्रान्त प्रवृत्तिके कारण स्वयं भी समाजद्रोही श्रेणी में सम्मिलित होजाते हैं। समाजके माध्यामिक कहलाने वाले वे लोग जिनका अधर्मविरोध करना मुख्य कर्तव्य है, अपनी इस प्रवृ. त्तिसे देशद्रोहियोंकी ही शक्ति बढा डालते हैं।
संसारके भ्रान्त आध्यात्मिक लोग सारे मनुष्यसमाजको धर्मके नामपर कापुरु. षताके समर्थक निकम्म नपुंसक बनाने में लगे हुए हैं। मासुरी शक्तिका विरोध करनेसे बचनेवाले वास्तव में भासुरी शक्तिके ही उपासक हैं । संसारभरमें जहां कहीं मासुरी राज्य ठहरे हुए हैं,वे इन धार्मिक मिथ्याचारियों के भ्रान्तधर्मविषयक मिथ्याप्रचारसे ही ठहरे हुए हैं । ये भ्रान्त माध्यात्मिक लोग ही आसुरी राज्योंको स्थिर रख रहे हैं। इन लोगों को भ्रान्त आध्यात्मिकताके प्रचारने लोगोंको धर्मका यथार्थ रूप समझनेसे वंचित करडाला है। इन लोगोंके मिथ्या प्रचार समाजकी आध्यात्मिक दृष्टि खुलने ही नहीं देते । ये समाजकी मांखोंको खुलनेसे रोकनेवाले भोटे बने हुए हैं। यदि समाजमें भ्रान्त माध्यात्मिकता न फैली होती तो समाज मासुरी राज्योंको कभीका उखाड फेंकता : समाजमें सच्चे धार्मिक ऋजु लोगोंकी दुर्लभता ही मनुष्यसमाजके अधःपतनका कारण है। मनुष्यसमाज लाख सिर पटकनपर भी तब तक देश में मादर्श राज्यतन्त्र स्थापित नहीं करसकता; जबतक वह अपने व्यक्तियों के समाजकल्याण रूपी ज्ञाननेत्रका उन्मीलन न करले और देश में मनुष्यताके मादशकी उज्ज्वल मूर्तिको सुप्रतिष्ठित न कर दे । इस सूत्रमें वेदोंके रहस्यवेदी चाणक्यने समाजकी इसी त्रुटिपर स्पष्ट कषाघात करके उसको साव. धान करना चाहा है।
जितने भी मानव धर्म हैं सबके सब परिस्थितिके भेदसे भिन्न भिन्न नाम पाजाने पर भी सत्यके ही स्वरूप हैं। सत्य ही परिस्थितिके भेदसे उन उन भिम भिन्न धर्मों या गुणों के रूपमें प्रकट होता है। क्योंकि सत्य ही मनुप्यकी एकमात्र कल्याणकारिणी स्थिति है और क्योंकि ऋजुता भी मानव कल्याणकारिणी प्रवृत्ति मानी जाती है, इसलिये यों भी कह सकते हैं कि