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चाणक्यसूत्राणि
बाह्य शत्रु
समान उपेक्षित करता चला आ रहा है । मानव-समाजको सचेत हो जाना चाहिये, अज्ञानके विरोध में सुदृढ व्यूह ( मोरचा ) लगाना चाहिये और इसके विरोध में महान् आायोजन करने चाहिये । बुद्धिमान् लोग इस अज्ञान रूपी शत्रुको नष्ट करके संसार के सबसे बड़े सबसे भयानक शत्रु पर विजयी बने रहते हैं । यह तो असंभव है कि बाह्य शत्रु ज्ञानीपर आक्रमण न करें । तो अपने स्वभावानुसार ज्ञानी अज्ञानी सबद्दीपर आक्रमण करते हैं । परन्तु ज्ञानी लोग उस शत्रुको अपनी हानिका कारण नहीं मानते | वे उसके आक्रमणका भी सदुपयोग कर लेनेकी दिव्य कला जान चुके होते हैं। जैसे कठोर छिलकेवाला नारियलका फल काक- चंचुओंको व्यर्थ करता रहता है इसी प्रकार ज्ञानी लोग शत्रुओं के आक्रमणको व्यर्थ बनाते रहते हैं। चाणक्यका चरित्र देशद्रोही शत्रुओं को नष्ट करनेका जीवित उदाहरण उपस्थित कर गया है। बाहर के शत्रु या तो ज्ञानीके देहपर या उसकी देवरक्षा भौतिक साधनपर आक्रमण करके ज्ञानीको उसके ज्ञानका क्रियास्मक आस्वाद लेने का सुअवसर दे देते हैं । ज्ञानीके ज्ञानपर कोई चोट पहुँचा सकना बाह्य अज्ञानी शत्रु शक्तिके बाहर होता है। कर्मकी जो कुशलता है वही तो ज्ञान है । ज्ञानी बाह्य शत्रुके आक्रमणको शत्रु-विजयका शुभ अवसर मानकर उससे अप्रभावित होकर उसका प्रतिकार करता चला जाता है । वह बाह्य शत्रुके आक्रमणको नाशवान् भौतिक जगत्की परिवर्तन-शीलता में सम्मिलित कर लेता है और अपनी संपूर्ण शक्ति से प्रतिकार करने में लगा रहता है । वह इस अज्ञानीके आक्रमणका विरोध करते समय अपने सत्यस्वरूप प्रभुके नेतृत्व या कर्तापनमें रहकर अपने पांच भौतिक देहको असत्य विरोध के साधन के रूपसे उपयोग में लाकर सत्यसेवाका अमृत चखता रहता है। वह उस बाह्य शत्रुको हानि पहुँचानेवाले के रूप में स्वीकार ही नहीं करता। वह तो हानिसे अतीत रहना सीखकर उस आक्रामक घटनाको सत्यास्वादनका सुअवसर मानकर उसका मित्रकी भाँति स्वागत करता है । बात यह है कि आभ्यन्तर शत्रुके ऊपर
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