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'शत्रुको निबल रूप मत दिखाओ
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पहले से ही विजय पा चुकनेवाले ज्ञानीका समस्त बाह्य व्यवहार सत्यरूपी मित्र-मिलनका विजयोत्सव बन जाता है । पाठान्तर- न सद्बुद्धिमतां शत्रुः ।
(सभामें शत्रुसे व्यवहारकी नीति ) ( अधिक सूत्र) शत्रु न निन्देत सभायाम् । सभामें शत्रुको निन्दा न करे। विवरण- सभामें शत्रुकी निन्दा करना अपनी ही धैर्यच्युति तथा शत्रुकी स्थितिमें उतारकर झगडा बढानेवाली निन्दनीय स्थिति है । सभामें दोनों पक्षों की पारस्परिक व्यक्तिगत उच्छंखल भर्सना-प्रतिभत्सनाका अप. राध प्रथम निन्दकके सिर मा पड़ता है । सभामें शत्रुको व्यक्तिगत निन्दा न करके उसके मनुष्योचित व्यवहार पाने के अधिकारको सुरक्षित रखते हुए केवल उसके निन्दनीय व्यवहार सुमभ्य संयत भाषामें अपने शिति-परि. चय, कोशल-जाल तथा सुगंभीर वाक्पटुतासे खण्डन करके उसे अप्रतिभ, हतप्रभ और निरुत्तर बनाना चाहिये । शत्रसे नि:सार वाग्युद्ध छोडकर शत्रकी निंदनीय स्थिति में उतर जाना अपनी ही पराजय है। उसकी बातोंका सयुक्तिक निराकरण करके उसके मायाजालको छिन्न-भिन्न करना और उसे मुत्तर देने योग्य न रहने देना ही 'सभा-पाण्डित्य ' कहाता है ।
( शत्रुको अपना निर्वल रूप मत दिखाओ )
आत्मच्छिद्रं न प्रकाशयेत् ॥५३५॥ आत्मामें किसी प्रकारका छिद्र अर्थात् निबलता प्रकट होना चाहती हो तो उस प्रकाशित न करे अर्थात् अस्तित्वमें न आन दे। पाठान्तर-नात्मछिद्रं प्रकाशयेत् । पाठान्तर- न सर्षपमात्रमप्यात्मच्छिद्रं प्रकाशयेत् ।