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चाणक्यसूत्राणि
किसी धार्मिक तेजस्वी राजाके साथ मित्रताका सम्बन्ध जोडें और एक सम्मिलित वर्धित शक्तिसे शक्तिमान् बने । सोमदेवके शब्दों में राजाके लक्षण- 'धार्मिकः कुलाचाराभिजनो विशुद्धः प्रतापवान् नयानुगतवृत्तिश्च स्वामीति ।' गजाको स्वधर्म तथा प्रजापालनमें रत कुलाचारका पालक अस्वेच्छाचारी कुलीन यतेन्द्रिय शौर्य, वीर्य, भीमता आदि गुणों के युक्त प्रतापी तथा न्यायनिष्ठ होना चाहिये ।
(राजद्रोह अकर्तव्य )
राज्ञः प्रतिकूलं नाचरेत् ।। ६५ ।। राजद्रोह न करे। विवरण--- राजाके प्रतिकूल माचरण न करे । राष्ट की सम्मतिसे सिंहासनारूढ राजाका द्रोह राष्ट्र का ही द्रोह है । प्रश्न होता है कि क्या राजाके अनातिपरायण होनेपर भी उसकी अनुकूलता करे ? क्योंकि भनीतिपरायण होना तो मनुष्यताविरोधी स्थिति है, इसलिये अपनी मनुष्यताको तिलांजलि दंकर अनीतिपरायण बने हुए राजाकी अनुकूलता करना चाणक्य जैसे आदर्श राजचरित्र तथा आदर्श समाजकी परिशुद्ध कल्पना करनेवाले मनस्वीके इस सत्रका अभिप्राय कभी नहीं होसकता । फिर प्रश्न होता है कि क्या इस सूत्रका यह अर्थ है कि अनीतिपरायणा राजाके तो प्रतिकुल आचरण करे
और धार्मिक राजाकी प्रतिकूलता न करके उसकी अनुकूलता करे ? वास्त. विकता तो यह चाहती है कि धार्मिक मनुष्यमात्रकी अनुकूलता की जाय । चाहे वह राजा हो या सामान्य नागरिक हो। धार्मिक मनुष्यके लिये धर्मकी अनुकूलता करना स्वभावसिद्ध होता है। इस बातके लिये सत्रकी कोई विशेष लावश्यकता स्वीकार नहीं होसकती । राजाके भनीतिपरायण होनेपर ही उसकी भनीतिपरायणताके संबन्ध में प्रजाका जो कर्तव्य बनता है उसीको स्पष्ट कर देना इस सूत्रका उद्देश्य है।
प्रजाकी राष्ट्रसेवा राजाको राष्ट्र के सामूहिक नैतिक प्रभावसे नीतिपरायण रखने तक ही सीमित है । राजद्रोह करके राष्टकी शान्ति तथा शृंखलाको भग करना तो राष्ट्रदोह है। यदि राष्ट्र राजाको नीतिपरायण रखने में असमर्थ