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चाणक्यसूत्राणि
भगवान् मायने उत्तर दिया- अग्निवेश ! मनुष्यसमाज ही हतध्वंसका अपराधी है। वायु आदिमें जो वैगुण्य पैदा होता है उसका मूल अधर्म है। मधर्मका मूल लोगोंकी मसद् भावनायें हैं । दोनोंका मूल प्रज्ञापराध या राष्ट्रमें नीतिहीनताका प्रसार होजाना है। कैसे सो सुनिये- जब देश, नगर, ग्राम तथा प्रान्तोंके प्रधानपुरुष अर्थात् राज्याधिकारी लोग धर्मका मार्ग त्यागकर प्रजाके साथ अधर्मयुक्त व्यवहार करते हैं तब उनके आश्रित, सपाश्रित लोग तथा किसान, शिल्पी, व्यापारी आदि व्यवहारोपजीवी लोग पापोंको और अधिक बढावा दे देते हैं। तब व अधर्म धर्मको ढक लेता है। तब वे धर्मको ढककर अधर्मप्रधान बनकर देवताओंका अपमान करने लगते हैं। उन अधार्मिकोंके अधर्म के प्रभावसे ऋतुएं विकृत होजाती है। उससे देव यथाकाल जल नहीं बरसाता या सर्वथा नहीं बरसाता अथवा अनियमित वृष्टि करता है । वायु ठीक नहीं बहते । पृथिवी वन्ध्या होजाती है। जल सूख जाते हैं। ओषधि भएना गुण छोडकर विकृत होजाती हैं। तब देशोंका ध्वंस होनेकी स्थिति भाखडी होती हैं ।
(सबसे बड़ा पाप)
नानृतात्पातकं परम् ॥ ४२१॥ अनृत व्यवहारसे बढकर कोई पाप नहीं है। विवरण- सत्यको तो त्याग देना और मिथ्याचारी सत्यद्रोही बन जाना अपनी मनुष्यता त्यागकर मसुर बन जाना है जो कि संसारका सबसे बड़ा पाप है। मनुष्यका शरीर मनुष्य नहीं है। उसका मन ही मनुष्य ताका निवासस्थान है। जीवन में मनुष्यताकी रक्षा न होने से मनुष्य मनुष्य. माताके पेटसे उत्पन्न होकर भी असुर बन जाता है । आसुरिकता मूर्तिमान् पाप है । आसुरिकताकी नस नस पापसे ठसाठस भरी हुई है । विश्वासपात्र लोगोंके साथ अनृत व्यवहार कर सकनेवाला किससे कौनप्ता पाप नहीं कर सकता ?