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सबसे बडा पाप
योऽन्यथासन्तमात्मानमन्यथा सत्सु भाषते । स पापकृत्तमो लोके स्तन आत्मापहारकः ॥ वाच्यर्था नियताः सर्वे वाङ्मूला वाग्विनिःसृताः । तां तु यः स्तनयेद् वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः ॥
जो पुरुष विश्वासपात्र भद्र पुरुके साथ अविश्शनका व्यवहार करता है, वह पापी और चोर है । वह अपनी गर्भधारिणी माता, अन्नदाता पिता, स्नेह परायण महोदर, महोदरा तथा संपूर्ण कुटुम्बवालोंके साथ विश्वासघात कर चुका है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह जीवनभर सबको ठग ही लग रहा है ! उसमे संसारमें किसीके साथ विश्वास ओर प्रेमका संबन्ध स्थापित नहीं किया है। उसने सत्यका अमृतास्वादन नहीं किया है । सत्यकी मधुरता उसकी कल्पना में भी नहीं है । वह तो पशुसे मी अधम मनुष्यताविध्वंसी असुर है ।
य
संसार के समस्त व्यवहार वाणी में से उत्पन्न होते, वाणीमेंसे निकलते और उपीपर आधारित रहते हैं। मानव जीवनकी रचना में वाणीका महत्वपूर्ण स्थान है । समस्त व्यवहारोंकी आधारशिला वाणी जैसी वह मनसे निकल कर भाई थी, वैसा उसे विश्वासपात्रोंसे न कहकर उसे अपने स्वार्थसे बदलकर चुराकर दूसरी बनावटी वाणी कहनेवाला समस्त चोरियोंका अपराधी है ।
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ध्यान रहे कि विश्वास के संबन्ध से होन पापियोंसे प्राणरक्षा, धनरक्षा, सत्यरक्षा या सज्जनरक्षा के लिये बातको विकृत करके कहना कर्तव्य होता है । आततायीको जिस किसी उपायसे धोखा देकर आत्मरक्षा करना असत्यविरोधरूपी अनाविल सत्य ही माना जाता है। पापीको हमसे विश्वास पानेका अधिकार न होनेसे उसे उसके पापके संबन्धर्मे धोखा देकर उसकी पापप्रवृत्तिको व्यर्थ करना न केवल अपाप है, प्रत्युत वह पापको व्यर्थ करनेवाला आवश्यक धर्म है ।
पाठान्तर
नानृतात्
२५ ( चाणक्य . )
परं पापम् ।
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