________________ दुर्वचन द्वेषोत्पादक है / वक्ताका उद्देश्य ही उसके वचनके सत्यासत्यकी कसौटी होता है / शुभ उद्देश्यसे कर्तव्यवश कहा सभी वचन सत्यकी ही परिभाषामें आजाता है। कलह के उद्देश्यसे उच्चारित प्रत्येक वाक्य मिथ्या होता है। अपने हदयको क्रोधसे कलुषित करके उच्चारित वचन असत्यकी दासता होता है। शरीर, मन या वचन किसीसे भी असत्यकी दासता न करना मनुष्यकी सत्यनिष्ठा है। अपने मन, वचन, कर्म तीनोंको कर्तन्यकी सीमासे बाहर न निकलने देना ही व्यर्थतारहित सफल जीवन है। मन, वचन, कर्मको कर्तव्यकी सीमासे बाहर निकाल जाने देना जीवन की व्यर्थता या निष्फल जीवन है। मनमें उत्पन्न होनेवाले क्रोध आदि रिपुभोंपर विजय पाकर रहना ही ज्ञानीकी विजय कुशलता है / __ वचन अपने मन तथा समाजकी शान्ति के लिये ही बोला जाना चाहिये। दूसरेको सन्ताप पहुंचाने की दृष्टि से तो कोई वचन बोलना ही नहीं चाहिये / दूसरोंको सन्ताप पहुंचाने की दृष्टि से उच्चारित वचन दूसरेके मनपर आघात पहुंचानेसे भी पहले वताके ही हृदयको सन्तप्त तथा अशान्त कर चुका होता है। जो मनुष्य दूसरेके प्रति दुर्वचन कह कर उसपर अपना क्रोध प्रकट करना चाहता है वह पहले स्वयं ही क्रोधका आखेट बन चुकता है और अपना जीवन न्यर्थ कर चुकता है / दुर्वचन वास्तविकताके आधारपर हो या न हो वह दोनों ही परिस्थितियों में वक्ताके उद्देश्यकी कटुताके कारण श्रोताको दुःखी करनेवाला होजाता है / उदाहरणके रूप में मंधेको अन्धा कहना उसकी विकलांगतापर कटाक्ष करनेवाला होनेसे अन्धेको दुःख पहुंचाता है। इसी प्रकार समाजको निन्दित करने के लिये उसे अन्धा कहना भी उप्तको दुःख पहुंचानेवाला होता है। ऐसे शाब्दिक सत्याधारित भी दुर्वचनोंसे वक्ता, श्रोता किसीका भी उपकार नहीं होता। ऐसे दुर्वचन सदा ही असत्य और परिहार्य होते हैं। वचन अपने ( वक्ता तथा श्रोता दोनोंके ) हितार्थ ही बोला जाना चाहिये / जो वचन अपना ही माहित कर डाले वह श्रोताको भी पीडित करेगा ही। उसे बोलना बुद्धिहीनता है।