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चाणक्यसूत्राणि
कल्याणको मुख्य ध्येय रखकर अपराधी के साथ चाहे जो बर्ताव किया। जाय, वह ऊपर से देखने में दण्ड होनेपर भी दण्डनीयके लिये कल्याणकारी होनेके कारण अक्षमा न कहाकर क्षमा जैसा ही महत्त्वपूर्ण व्यवहार माना जायगा । इसके विपरीत अपराधीको क्षमा करके समाजमें अपराधको प्रोत्साइन देकर अपराधियोंकी संख्या बढाते चले जाना क्षमांके नामसे अनर्थको अपनाना है । समाजकी शान्तिकी रक्षा करनेवाले सदस्यको समाजसेवा से वंचित करना या यों कहें कि समाजको किसी शान्ति-रक्षक सदस्यकी सेवा से वंचित करदेना, दण्डका उद्देश्य कदापि नहीं है । अपराधीका संशोधन करनेवाले दण्ड तथा क्षमा नामके दोनों अत्र, परिस्थितिके अनुसार समान द्देश्य से प्रयोग में लाये जाने चाहिये । दण्ड तथा क्षमा दोनोंका उद्देश्य अपराधको निन्दित करना ही होना चाहिये । अपराधी तब ही क्षम्य माना जासकता है जब कि क्षमाके प्रभावसे उसके मनमें अपराध के लिये घृणा उत्पन्न की जासके । यदि क्षमासे अपराधी के मनमें अपराधके लिए वृणर उत्पन्न न की जासके तो अपराधोंको समाज में निन्दनीय बनाये रखने के लिये अपराधियोंको कठोर से कठोर दण्ड देनेमें प्रमाद करना घातक भ्रान्ति होगी।
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( अपमान सहनेवालोंपर अत्याचार मत करो )
( अधिक सूत्र ) क्षमन्त इति पुरुषान् न बाधयेत् । लोगों की सहनशीलताको देखकर उनसे ऐसा बर्ताव न करो जो वास्तव में उनपर अत्याचार वन जाय ।
विवरण -- राजदण्ड चिकित्सकों के अमृतफलोत्पादक विष प्रयोग-सा होना चाहिये । राजदण्डका उपयोग असाध्य रोगीकी चिकित्सा में अचूक रक्षक विष-प्रयोगके समान होनेपर ही समर्थनीय होता है । प्रजापालक राजाका कर्तव्य है कि वह दण्ड प्रयोग करते समय अपनेको अत्याचारित प्रजाकी परिस्थितिमें रखकर ही दण्डकी उपयोगिता तथा औचित्यका विचार किया करे । अपनेको अत्याचारित प्रजाकी स्थिति में रखे बिना दण्डका अभ्रान्त होना किसी भी प्रकार संभव नहीं है ।