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चाणक्यसूत्राणि
सिकन्दरने इसी विवशतासे स्वदेश लौटनेका सीधा मार्ग त्यागकर सिन्ध और मकरानके रेगिस्तान तथा समुद्र के मार्गसे भाग निकलना चाहा । पर्वतकको विजय न कर सकने के समाचारने सिकन्दरके अत्याचारित पश्चिमोत्तर भारत में, उसके विरुद्ध विद्रोहको और भी अधिक भडका डाला था। यह विद्रोह सुसंगठित तथा शक्तिशाली बन चुका था। इसे दबाया नहीं जा सका । सिकन्दरको इसी विराट् विद्रोहको लपेटमें आकर सिंध तथा मकरानके ऊबड़ खाबड मरुस्थलोंके उस दुर्गम मार्गसे, जिसमें खाद्य तथा पेय सामग्री मिलनी कठिन हो गई थी और जिसमेंसे सेनाकी सामग्रीको ले चलना दुष्कर हो जाने के कारण पडावोंपर ही छोड देना पडता था, भागना पडा, तथा अपनी छोटी छोटी उन नौकाओंसे जो पंजाबकी नदियों के भी योग्य नहीं थी, समुद्रके उस पथसे वहांका ऋतु सावन भादोंकी वायुसे सर्वथा विपरीत हो चुका था, स्वदेश भागने के लिये विवश हो जाना पडा । इन मागोंके कारण उसकी बची खुची सेनाका भी अधिकांश नष्ट हो गया।
उप्लकी सेनापर भारतमें जिस प्रकार मार और कष्ट पडे उसका कुछ माभास इस समाचारसे मिल सकता है कि उसके अवशिष्ट सेनापति तथा सैनिक आदि इतने विवर्ण हो चुके थे कि अपने देश में लौटने पर पहचाने तक नहीं जा सके । सिकन्दरसे उत्पीडित सिन्ध तथा बिलोचिस्तान मादिकी समस्त विद्रोही जातियों का नेतृत्व चाणक्य और चन्द्रगुप्त दोनों कर रहे थे । चाणक्य सिकन्दरको जानसे मरवा डालना चाहता था। इस कामके लिये वह सिन्धमें उन ब्राह्मण जातियोपर पहुंचा जो 'समानशीलव्यसनेषु सख्यम् ' के अनुसार पहलेसे ही सिकन्दरके विरोध के लिये उसके साथी बन चुके थे। चाणक्य ने उसे जीवित स्वदेश न लौटने देनेका भगीरथ प्रयत्न किया। उस समय भारतीय सेनाभोंने सिकन्दरपर पग-पगपर घातक प्रहार किये। प्रतिहिंसात्मक भाक्रमणोंसे ध्वस्त कर डाला और भारतपर माक्रमण करनेके अपराधके बदले में अत्यन्त कडवा घुट पिलाकर छोडा।।
संयोगवश सिकन्दर अपने शरीरपर घातक प्रहार लेकर भी जैसे तैसे भाग तो निकला परन्तु बेबिल न जाकर मर गया। इसी कारण पाश्चात्य