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________________ परिहास अकर्तव्य भूमि है । इन्द्रियासक्ति में सुख पानेकी उच्छा मनुष्यका उतना ही यथ प्रयत्न है जितना कि बालुका उबालकर सरस भोजन पानेकी अभिलाषा । विषयतृष्णाको चरितार्थ करके सुखान्वेषण करना अपने को अनन्त दुःखजाल में फंसालेना होता है । समाजमें मनुष्यता के संरक्षक संयमका आदर्श रखने पर ही उसमें सुख शान्ति सुरक्षित रह सकती है । इसके विपरीत समाजको भोगमात्रलक्ष्यवाले जडवाद के पीछे चलाना उसे दुःख तथा नैराश्य के मार्गपर लेचलना है । समाजको मानवताके संरक्षक संयम के आदर्श पर रखना राज्यसंस्थाका सामाजिक उत्तरदायित्व है । अपनी राज्य संस्थाको सामाजिक उत्तरदायित्वको पूरा करनेवाले कर्तव्यमार्गपर रखना ही समाअपति विज्ञपुरुषों का ध्येय होना चाहिये । २८५ पाठान्तर बालुकापीडनादनन्यः । अनुचित स्थानमें प्रयत्न तेलके किये बालू निचोड़ने जैसा निष्फल अयत्न है । (सीधे-सादे सत्यनिष्ठोंका परिहास अकर्तव्य ) न महाजनहासः कर्तव्यः ॥ ३२१ ॥ विज्ञ समाजसेवकका उपहास नहीं करना चाहिये । विवरण - मनुष्य में विद्या, प्रताप, उदारता, अनुभव, धन तथा धर्मके कारण महानता आती है । इन गुणोंसे संपन्न वर्तमान या भूत लोगोंको उपहास या उपेक्षाका पात्र नहीं बनाना चाहिये। इस प्रवृत्तिसे अपने मनमें भी हीनवृत्ति पैदा होती तथा उपहासकर्ताको भी लोगोंकी दृष्टि में हीन बना देती है । ऐसे लोग साधुताद्रोही होकर महापुरुषोंसे मिलनेवाले लाभोंसे वंचित होजाते हैं । लोकोक्ति है- " प्रतिबघ्नाति हि श्रेयः पूज्यपूज्याव्यतिक्रमः " पूज्योंकी पूजा न करनेसे मनुष्यका कल्याण नष्ट होजाता है । असत्यनिष्ठ भोगपरायण जडवादके पीछे भटकनेवाली सभ्यता नामवाली बर्बरता जहां कहीं विद्वत्ता, सत्यनिष्ठा, मनुष्यता, तेजस्विता,
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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