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चाणक्यसूत्राणि
यके मनमें ज्ञानका सागर है, परन्तु वह ज्ञानरूपी मन्थन दण्डसे हृदयका मन्धन करने पर ही प्राप्त होकर मानवको शास्त्रज्ञ बनाता है । प्राप्तव्य वस्तुके प्रति उदासीनता ही आलस्य है । जितेन्द्रियता ही मनुष्यका एकमात्र अध्येतव्य तथा प्राप्तव्य अनुपम शास्त्र है । ऊपर कह आये हैं ' इन्द्रियाणां प्रशमं शास्त्रम् ' । जितेन्द्रियताको अपनानेके लिये सात्विक पुरुषार्थ न करनेवाले लोग ही आलसी कद्राते हैं ।
अलसी मन्दबुद्धिश्व सुखी वा व्याधिपीडितः । निद्रालुः कामुकश्चैव पडेते शास्त्रवर्जिताः ॥
आलसी, मन्दबुद्धि, सुखलोलुप, रोगी, निद्रालु तथा कामी ये शास्त्रवर्जित लोग हैं ।
आलस्याद् बुद्धिमान्यंच आलस्यात्कार्यवैक्लवम् । आलस्यादवनतिश्चैव गौरवं तेन नश्यति ॥
आलस्य से बुद्धिकी मन्दता, कार्यकी हानि तथा भवनति होती है। उससे गौरव नष्ट होजाता है । इसलिये उन्नतिकामी लोग सदा निरलस रहें । पाठान्तर --- नास्त्यालस्यस्य शास्त्राधिगमः ।
( स्त्रैण कर्तव्यहीन तथा दुःखी )
न स्त्रैणस्य स्वर्गाप्तिर्धर्मकृत्यञ्च ॥ ३१७ ॥
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रमणीरत स्त्रैण न तो धर्मकृत्य करसकता तथा न सुखी रह सकता है ।
विवरण - इन्द्रियाधीन, भोगेक सर्वस्व, कामकिंकर, विषयलम्पट मर्या दाहीन कामी पुरुष न तो अपना मानवोचित कर्तव्य पालसकता और न शारीरिक मानसिक किसी भी प्रकारका सुख पासकता है ।
तपस्वी, संयमी, उद्यमी, इन्द्रियनिग्रही जीवन बिताने से मनुष्य में तेज, ओज, वर्चस, प्रभाव आदि वे गुण पैदा होते हैं जो मनुष्यको प्रभावबाली बनाते हैं । भोगलोलुपतासे मनुष्यका मोज क्षीण होकर उसका मन,