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चाणक्यसूत्राणि
अत्यन्त निन्दित मनोवृत्ति है । राजा या रायपुरुषमें अपने भुजबलसे अपने स्वामित्वकी रक्षाकी पूर्ण योग्यता और अदम्य उत्साह होना परमावश्यक है । शासन की मुव्यवस्था और सच्ची शान्ति दोनों गंभीर उत्तरदायित्व है और महती वीरताके काम हैं । ये कोई नानीजीके घर नहीं है ।
धाद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते । (गीता ) राष्ट्ररक्षाका वीरतापूर्ण कर्तव्य रखनेवाले क्षत्रिय के लिये, धर्म-रक्षार्थ, असत्य, अधर्म या पापसे संग्राम करते रहने के अतिरिक्त दूसरी किसी भी बातमें कल्याण नहीं है । पाप, अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध निरन्तर संग्राम ही राज्याधिकारियोंकी सन्ध्या, जप, तप, पूजा, पाठ आदि सब कुछ है । संन्यासीको ज्ञान--समाधि अर्थात् कर्मयोगसे जो पद प्राप्त होता है, राज्याधिकारीको वही पद राष्ट्रव्यापी पापसे युद्ध छेडकर, उसे राष्ट्रमेंसे बहिष्कृत करनेसे प्राप्त होता है । तात्पर्य यह है कि राष्ट्रोनायक महत्वपूर्ण साहसिक कर्तयों में दीनता माजाना गर्हित है। स्वामी बननेवालोंमें सत्साहसिक कामों में कूदने की अदम्य शक्ति होनी चाहिये । यदि राज्यकी रश्मि पकडने. वाले लोग अयोग्य अशक्त होंगे तो राष्ट्रमें निश्चितरूपसे पापवृद्धि और कर्तव्योंकी हानि होगी।
(हितषियोंकी उपेक्षा अकर्तव्य ) स्वजनेप्वतिक्रमो न कर्तव्यः ॥ २४६ ॥ अपने हितैषियोंकी उपेक्षा न करनी चाहिये किन्तु उनके साथ यथोचित वर्ताव करना चाहिये।
विवरण- जीवनमें सत्य सुरक्षित रहे इसीसें मानवमात्रका कल्याण है। सत्य ही नाना भांतिसे मानवका कल्याण करनेके लिये स्वजनोंका तथा उनके हार्दिक प्रेम और श्रद्धाका रूप लेकर प्रकट होता है । इस दृष्टि से सत्य ही मानवमात्रका स्वजन है । सत्यनिष्ठ धार्मिक लोग समग्र मनुष्य-समाजके स्वजन होते हैं । समग्र राष्टके कल्याणमें अपना कल्याण देखना सत्यनिष्ठ धार्मिक व्यक्तियों के लिये स्वाभाविक होता है ।