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चाणक्यसूत्राणि
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति । दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः ॥ ( मनु ) दण्डनीति ही प्रजापर शासन करती और वही दुःसाहसियोंसे प्रजाकी रक्षा करती है । दण्ड सोते हुओं में भी जागता है । विद्वान् लोग दण्डको ही धर्म बताते हैं ।
पाठान्तर
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दण्डनीतिमनुतिष्ठन् प्रजाः संरक्षति । ( दण्डका माहात्म्य )
दण्डः सम्पदा योजयति ॥ ८० ॥
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दण्ड ही राजा या राजको समस्त संपत्तियों से युक्त बनाता है । विवरण - दण्ड न्यायका पर्यायवाची है । दण्ड हो न्याय है । प्रजा दण्डसे ही वशमें रहती है। प्रजाके राज्यसंस्था के वशमें रहने से ही संपत्तियें राजा के पास अहमहमिकया होड लगाकर भाने लगती हैं। राज्य में दण्डव्यवस्था न रहने से क्रय विक्रय, खान, भाकर, आयकर, तटकर, ऋणदान, ऋणादान, न्यायान्याय, घट्ट, हाट आदि आयके समस्त मार्ग रुक जाते और बड़े लोग छोटोको कुटकर खाने लगते हैं । तब देशमें उपद्रव खडे होजाते हैं । यही राज्यनाश या सम्पद्विनाशकी स्थिति बनजाती हैं । उचित दण्डव्यवस्था ही राष्ट्रको विनाशसे बचाती और राज्य तथा राष्ट्र दोनों को संपन्न बनाये रखती है ।
पाठान्तर - दण्डः सर्वसम्पदा योजयति ।
( दण्डभाव से हानि )
दण्डाभावे मन्त्रिवर्गाभावः ।। ८१ ।।
राज्य में दण्डनीतिके उपेक्षित होनेपर राजा सुमन्त्रियोंसे परित्यक्त हो ( कर कुमन्त्रियों के वशमें आ ) जाता है
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विवरण- देशविदेशसंबन्धी दण्डनीतिके सदुपयोग के लिये श्रेष्ठ विचक्षण मन्त्रियोंकी आवश्यकता होती है । दण्डकी उपेक्षा करनेवालोंको सुमन्त्रियों के स्थान में दुर्मन्त्रियोंकी भीड घेर लेती है । तब राजाकी स्वेच्छाचारिता बढकर राज्यको निर्मूल कर डालती है ।