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चाणक्यसुत्राणि
विचार करके ही उसे करना चाहिये । सोचकर करना चाहिये । करके सोचनेका कोई अर्थ नहीं है । तब तो पछताना ही पछताना होता है।
कामज कोपज व्यसनोंके दोष दिखानेका प्रसंग चल रहा है, इस कारण दुत शब्दको अपगठ मान लेना पडता है । इस पाठसे विचारकी शंखला टूट जाती है।
(भृगयासे हानि ) मगयापरस्य धर्मार्थी विनश्यतः ।। ७२ ॥ आखेटव्यसनीके धर्म और अर्थ ( कर्तव्यपालन तथा जीवनमाधनोंका संग्रह और रक्षा ) दोनों ही नष्ट हा जाते हैं ।
अर्थपणा न व्यसनेषु गण्यते ॥ ७३ ॥ जीवनसाधनोंके संग्रहको इच्छा व्यसनाम नहीं गिनी जाती। विवरण-धन जीवन यात्रा, राष्टरक्षा तथा राष्ट्रोन्नतिका साधन है। अत: धन कदापि त्याज्य नहीं है । धनासक्ति या कृपणता ही त्याज्य है।
अजरामरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थ च चिन्तयत् ।
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ।। मनुष्य अपनेको अजर, अमर मानकर विद्योपार्जन और धन संचय करता है । परन्तु धर्मका उपार्जन तो तत्काल करे और इस बुद्धिसे करे कि मौतने भाकर मेरा केशपाश पकड लिया है, जो कुछ धर्म करना है इसी क्षण कर लें। मनुष्य फिरके लिये धर्मको न टाले।
अधिक सूत्र- अर्थेषु पानव्यसनी न गण्यते । मदिरासक्त लोग महत्वपूर्ण कामों में विश्वास करने योग्य नहीं होते।
(कामासक्तिसे हानि ) न कामासक्तस्य कार्यानुष्ठानम् ।। ७४ ॥ कामासक्त चरित्रहीन व्यक्ति किसी भी कामको ठीक नहीं कर सकता।