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चाणक्यसूत्राणि
वास होना था। पाठक सोचें कि देहरक्षा के लिये लस्यानुमोदित उपार्जनको मावश्यक न रखने के ममनुष्योचित आदर्शने मनुष्य सत्यस्वरूपी जीवनलक्ष्यको लोगों की कल्पनामे से ही निकाल बाहर किया है । मनुष्यको जानना चाहिये कि सत्य ही उसके हृदय की संतोषरूपी वह सम्पत्ति है जिसपर प्रत्येक मानवका समानाधिकार है और जो उसके पास अपने कर्तव्य पालन के संतोष के रूप में रहना ही चाहिये । भौतिक धनसंपतपर मानवका समानाधिकार कभी भी संभव नहीं है।
मनुष्य देह नहीं है फिर भी वह भ रनेको देह मानता है । वह अपनेको काला गोरा अमुकका पुत्रादि मानता है, जब कि भदेह विश्वव्यापी अमर सनातन सत्य अभिसा है। उसकी देहात्मबुद्धि उसको बडी हानि करती है। वह जो अपने को देह समझ बैठा है, उसीके कारण उसका सारा कर्तव्यशास्त्र बिगड़ गया है । उसकी देहात्मबुद्धि के उसको सत्यरूपी सार्व. जनिक संपत्तिसे वंचित करडाला है और उसे दीन, दुखिया, कंगाल, भिखारी तथा भोगाकांक्षाका, कीतदास बनाकर उसे मनुष्यसमाजका आखेटक ( शिकारी) बना डाला है ! भोगवादी संस्कार नहीं जातना कि उसने संसारकी कितनी बडी हानि की है ? इस भोगवादी संसारने मनुष्यको समाजके सत्यस्वरूप सार्वजनिक सुख के समानाधिकारसे वंरित कर डाला है और उसे अपने व्यक्तिगत सुन के लिये लोगों के गले काटने से न बचनेवाला समाज-कल्याण-विद्वेपी नरकासुर बना डाला है । भोगवादो जड संपारने परस्पर को लूट लूट कर खाने का जघन्य आदर्श अपना लिया है।
देहासक्त भविचारशील मूढ प्राणीके पास देह-रक्षा या पेट-पूजाकी ही एकमात्र बुद्धि रहती है । देहासक्तकी समस्त बुद्धि केवल पेट पालनके काम आती है । उसके पास पेट और भोगसे अलग कोई समस्या नहीं रहती। वह जिस समाजके मूक सहयोगसे जीवनसाधन पा रहा है, जिप समाजकी भाषामें सोच और बोल रहा है, जिसकी सहनशीलतासे सुखपूर्वक जीवन बिता रहा है, उसे भूलकर उसके उत्थानमें कोई योग न देकर, दिनरात