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भूमिका
इनमें से अव्याख्यात छोडे हुए ग्यारह सत्रोंकी कुरुचिपूर्णता नीति. विगर्हितता, समाजघातकता, अप्रासंगिकता तथा युक्तिहीनता मस्यन्त स्पष्ट है । इनकी व्याख्याको समाजके मादर्श ज्ञानी गुरु विश्वमानवके मनोराज्यके एकत्र सम्राट ऋषि चाणक्य के पवित्र हृदयके निःश्वास अमृतवर्षी ज्ञानभंडारमें सम्मिलित करके इस भाषाके कलेवरको कालिमा लिम करनेके लिये लेखनी उद्यत ही नहीं हुई। केवल मूल ग्रन्थके प्रचलित रूपतया संख्याको अक्षुण्ण रखनेकी दृष्टि से सूत्रोंके मूल रूपका बहिष्कार उचित नहीं माना गया। विश्वास है कि इस व्याख्या त्यागसे भाष्यमें पूर्णाङ्गताबाई है। प्रत्येक प्रकारके पाठककी दृष्टिसे पठन पाठनके दोषों को दूर रखना ही भाष्यकी पूर्णाङ्गता मानी गई है।
कृतज्ञता-प्रकाश गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुरके प्रमुख अध्यापक श्री प. छेदी प्रसादजी न्याकरणाचार्य तथा वहीं के मेरे सब्रह्मचारी श्री प. उदयवीरजी शास्त्री, न्यायसांख्य योगतीर्थ इस व्याख्याको सुनकर कई उपयोगी सम्मतियोंसे इसकी शोभावृद्धि में सहायक बने हैं। वाराणसीके श्री विश्वनाथ पुस्तकालयके अध्यक्ष श्रीकृष्णपन्तजी, साहित्याचार्यने उपयोगके लिये श्री ईश्वरचन्द्र शर्मा, शास्त्री वेदान्तभूषणकी सारार्थबोधनी टीका देकर अनुगृहीत किया । वे परम धन्यवाद के पात्र हैं।
साहित्यचर्चा लगभग पच्चीस वर्ष बीत रहे हैं बुद्धि सेवाश्रमके बालकोंमें विचारशक्तिको जगानेके उद्देश्यसे ब्रह्मविद्याग्रन्थमाला नामसे सर्वथा नवीन शैलीसे पाठ्य. ग्रन्थों की रचना की गई थी। उसमेंसे भारतकी अध्यात्ममूलक संस्कृति मर्थात् जाग्रत जीवन, सिद्धान्तसार, बालप्रश्नोतरी, बोधसार, पंचदशी, मनुष्यजीवनका लक्ष्य, गीतापरिशीलन, नारदभक्तिसूत्र, भारतीय संस्कृ. तिके अनुसार भारतीय संविधानकी रूपरेखा तथा वर्तमान विधानको प्रजा.