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चाणक्यसूत्राणि
विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् ।।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्म ततः सुखम् ॥ ( विष्णुशर्मा ) विद्यासे विनय, विनयसे पात्रता, उससे धन, उससे धर्म तथा उससे सुख प्राप्त होता है ! सन्मार्गसे- आई हुई विद्या- मनुष्यको विनय सिखा ही देती है । विद्यासे विनीत, सुजन, निदोषवैदुष्यसम्पन्न कार्यकुशल लोग ही राजकाजमें नियुक्त होने चाहिये । नहीं तो राज्यसंस्थाका लूटका ठेका ( इजारा ) होजाना अनिवार्य है।
(भुजबलसे निरुपद्रव बनाये देशमें रहो )
अनुपद्रवं देशमावसेत् ।। ३६९।। उपद्रवहीन देशमें निवास करे। विवरण- सपद्रव शान्तिप्रिय मनुष्य के तो स्वभावके विरुद्ध तथा अशान्तिप्रियले स्वभावके अनकूल है। किसी देशमें उपद्रवकारी लोग न रहें यह कभी संभव नहीं है । प्रकृतिमाता सदा ही दो प्रकारके मनुष्य उत्पन्न करती रहती है । ऐसी अवस्थामें शान्तिप्रिय मनप्यों के सम्मुख यह कर्तव्य अनिवार्य रूपसे सदा ही विद्यमान रहता है और रहता रहेगा कि वे अपने देशको उपद्रव करनेवाले लोगोंके अधिकार में न रहने देकर अपने अधि. कारमें रक्खें ।
निरुपद्रव लोगोंका यह स्वभाविक कर्तव्य है कि वे उपद्वी लोगों के ऊपर अपना शासनदण्ड स्थापित किये रहें । यदि उनकी निरुपद्रवतामें उपद्रवदमनका सामथ्र्य नहीं है तो ऐसी कायर निरुपद्रवता समाजघाती तत्व होनेसे अपना कोई मूल्य नहीं रखती। सच्चे निरुपद्रव वे ही लोग हैं जो उपद्रवियों के सिरपर अपना शासनदण्ड स्थापित रखते हैं। इस दृष्टि से उपद्रवदमन न करसकनेवाले निरुपद्रवी लोग अपनेको निरुपद्रव नामसे सम्मानित करने का अधिकार नहीं रखते।
उपद्रवियोंसे संग्राम किये विना निरुपद्रव जीवन बिताना किसी भी प्रकार संभव नहीं है। मानवधर्म यही है कि समाज के निरुपद्रव लोग