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चाणक्यसत्राणि
धीतना चाहिए । अपने जीवन के एक भी क्षणको व्यर्थ खोना सम्पूर्ण जीवनको व्यर्थ करदेना है।
अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत् ।। गृहीत एव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥ (विष्णुशर्मा ) मनुष्य विद्या तथा जीवन-सामग्रीका उपार्जन तो अजर-अमरकी भाँति करे। परन्तु अपने मानवोचित कर्तव्य-पालनमें यह मानकर अत्यन्त शीघ्रता करे कि “ मौतने सिरके बाल पकड लिये है और अब यह मार ही देना चाहती है जो करना हो इसी क्षण कर लिया जाय।" पाठान्तर- अजरामरवदर्थजातमर्जयत् ।
मनुष्य अपनेको अजर-अमर मानकर उचित उपायोंसे साधनसंग्रह करता चला जाय ।
( धनार्जनके प्रयत्न स्थगित मत करो ) अर्थवान् सर्वलोकस्य बहुमतः ।। २५५ ॥ ऐश्वर्य-संपन्न मानव अपनी अर्थशक्तिसे सार्वजनिक सम्मा नका भाजन होजाता है।
विवरण-- व्यावहारिक जीवनमें धन ही लोक-स्थितिका निदान है। यदि मनुष्य धनी होकर व्यसनालक्त न हो तो उसका धन गोदुग्धके समान अमृतस्वरूप होजाता है। यदि मनुष्य व्यसनासक्त हो तो वही धन नव. ज्वरमें पिये दूध के समान विषवत् मारक होजाता है।
राज्यसंस्थाके पास राज्यैश्वर्य रहना अनिवार्य रूपसे आवश्यक है । राजा ऐश्चर्यशाली होकर ही प्रजापालनमें समर्थ होता है । राजाको राज्यैश्वर्यसंपर बनने में अपना कोई भी सत्यानुमोदित प्रयत्न स्थगित नहीं रखना चाहिये ।
धनेन बलवान् लोको धनाद् भवति पण्डितः। मनुष्य धनवान् होनेसे बलवान् तथा बुद्धिमान् माना जाने लगता है।