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चाणक्यसूत्राणि
बाणका घाव तो भर सकता है, परन्तु दुरुक्त वाणीका घाव जीवनभर नहीं भरता । इस दृष्टिसे वचनको शान्त रखनेका उपाय मनको शान्त रखना है। शान्तवचन बाह्य संसार में भी शान्ति रोकनेवाला तथा वक्ताकी भी मानसिक शान्तिको सुरक्षित रखनेवाला होता है । शान्तिसे झगडे मिटते अशान्ति से वातावरणमें आग लग जाती है।
रोहते सायकैर्विद्धं वनं परशुना हतम् । वाचा दुरुक्तया विद्धं न संरोहति वावक्षतम् ॥ बाणोंके घाव तो भर जाते हैं, परशुसे काटे वन भी पुनः फूट जाते हैं परन्तु दुरु ( पयु) क्त वाणीका बींधा धाव कभी नहीं भरता।
(प्रिय वाणीका महात्म्य )
प्रियवादिनो न शत्रुः ॥ ४४२ ॥ हितवादीका कोई शत्रु नहीं होता। हितवाक्यप्रयोक्तुश्च दातुश्चैवोपकारिणः ।
साधो लस्य जगति रिपुर्नव प्रदृश्यते ॥ हितवचन बोलनेवाले, दाता, उपकारी, साधु तथा बालकका संसारमें (दष्टोंको छोडकर ) कोई शत्र नहीं होता । मनको पतित करनेवाले कामक्रोधादि मनोविकार ही मनुष्यके मूल शत्रु हैं। अपने मनको अपनी ओर से निर बना चुकनेवालेको जिह्वासे सत्यको प्रकट करनेवाला हित वचन संपूर्ण मनुष्यसमाजका मित्र होता है। उसके वचन मनुष्यप्तमाजको कल्याणमार्ग दिखानेवाले होते हैं। मनुष्य की दूसरोंसे जो व्यक्तिगत शत्रुता उनती है, वह भी वास्तवमें मनुष्यसमाजकी शान्तिपर भाक्रमण करनेवाले दुष्टोंके भहित, कटु, अयथार्थ, उत्तेजक वचनोंसे ही उनती है। अपने समा. जका अपनी भोरसे शत्रु न बनना ही मनुष्य की निर्वैर स्थिति है। यों तो संसारमें ज्ञानीके शत्रु अज्ञानी ही हैं । परन्तु ज्ञानी अपनी ओरसे किसीके साथ शत्रुताचरणका अपराध नहीं करता। वह अपना इस महामहिम मानसिक स्थिति से निर रहता है ।