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________________ चाणक्यसूत्राणि करता है । वह जानता है कि मैंने समाज कल्याणकारी नियमका संग किया है इसलिये मैं समाजका अपराधी हूँ । वह इसी दृष्टिके कारण अपने पापको छिपाकर रखना चाहता है । वह अपना पाप छिपानेकी चादके वशीभूत होकर कुछ इस प्रकार के अस्वाभाविक आचरण करने लगता है जो दण्डाधिकारियोंके सम्मुख उसका भंडाफोड कर देते हैं । दण्डाधिकारी लोग ऐसे अवसरोंपर उसपर उचित दबाव डालकर उसके अपराधको उसीके मुखसे प्रकट कराने में समर्थ हो सकते हैं । पापीका चालचलन, रंगढंग, रहनसहन, वाक्यपरिपाटी, चंचलचित्तता, गात्रों की गति आदि सब कुछ सब समय संदेहजनक बना रहता है। उससे अस्वाभाविक कर्म करानेवाली उसकी अस्वाभाविक मानसिक स्थिति उसे पुरुष-पररीक्षकों की दृष्टिमें संदेहका पात्र बना देती है । पाठान्तर प्रच्छन्नं यत्कृतं तदपि न प्रच्छन्नमात्मनः । दूसरोंकी दृष्टि बचाकर किये पाप भी अपने आत्मासे प्रच्छन्न नहीं रहती । ( आकृतिपर चरित्रकी छाप आ जाती हैं ) व्यवहारेऽन्तर्गत माकारः सूचयति ।। ५५४ ।। मनुष्यकी आकृति उसके मनके व्यवहार प्रेरक गुप्त भावोंको व्यवहार - भूमिमें दूसरोंपर प्रकट कर देती है । ५१८ विवरण -- व्यवहार करानेवाली मानसिक स्थिति व्यवहार में मनुष्यकी भाकृति पर झूलने लगती है । मनुष्य जिस भावनासे जो व्यवहार करता है, वह भावना उसके आकार में प्रतिबिम्बित होकर रहती हैं। मनुष्यकी आकृतिपर उसके मनकी पवित्रता या अपवित्रताका प्रतिबिम्ब अनिवार्य रूप से पडता है । लोकचरित्रको समझनेवाले पुरुष-परीक्षाके विशेषज्ञ लोगों की सूक्ष्म दृष्टिमें मानवोंकी आकृतियाँ ही उनकी मानसिक स्थितिको प्रकट कर देनेवाली पाठ्यसामग्री होती है । आकारैरिङ्गितैर्गत्या चेष्टया भाषणेन च । नेत्रवक्त्रविकारश्च लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥ ( विष्णुशर्मा )
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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