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स्वभाव नहीं छूट सकता
( स्वभाव नहीं छूट सकता )
स्वभावो दुरतिक्रमः ।। ३२७ ॥
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स्वभाव त्यागना कष्टसाध्य होता है ।
विवरण - मनुष्यका मन ज्ञानी या अज्ञानी दोनोमेंसे किसी एक स्थितिको अपनाकर स्वभाव के प्रवाह में बहकर या तो ज्ञानानुकूल या अज्ञानोचित आचरणों में आनन्द मानाकरता है । एक दिन किया हुआ कर्म अगले दिन स्वभाव बनजाता है । स्वभावानुयायी काम करना किसी एक दिनमें सीमित न रहकर सदातन स्वभावका रूप ग्रहण करलेता है । यह असंभव बात है कि एक दिन शुभकर्म में आनंद लेनेवाला मनुष्य अगले दिन अशुभकर्म करनेवाला अज्ञानी बनजाय। यह भी असंभव है कि पहले दिन अशुभ कर्म करनेवाला अशुभकर्ममें सुखबुद्धि रखता हुआ अज्ञानी अगले दिन शुभकर्म करनेवाला ज्ञानी बनजाय । जबतक अज्ञानीको अज्ञानमें मिठास आता रहता है तबतक शुभकर्म उसके लिये कष्टसाध्य या कष्टप्रद ही बना रहता है। शुद्ध भावनाकी मधुरता हो शुभकर्म कराती तथा करासकती है । शुद्ध भावना ही ज्ञान है । जब मनुष्य ज्ञानी बनचुकता है तब ही उसका मन शुभकर्मका मिष्टास्वादन करनेमें समर्थ होता है । यों ज्ञानकी आंखें बन्द करके रहनेवाले अज्ञानी का कोई भी आचरण उन्मीलितचक्षु ज्ञानीके आचरणके समान नहीं हो सकता । इस दृष्टिसे ज्ञानीसमाजका कर्तव्य है कि वह राष्ट्रसेवार्थी के ज्ञानका पूर्ण परिचय पाये बिना, उसे समाजकल्याणसे संबन्ध रखनेवाली राष्ट्रसेवा के क्षेत्र में सम्मिलित वा नियुक्त न करे । यही यहां इस सूत्रका अभिप्राय है ।
पहले तो मनुष्य अपनी स्वतंत्रताका दुरुपयोग करके अज्ञानी स्वभाव बनाता है फिर उसीके अधीन होकर बैठजाता है । फिर अपना ही बनाया हुआ स्वभाव उसे अत्याज्य दीखने लगता है । यह मनुष्यकी अज्ञानमयी स्थिति है । परन्तु जब मनुष्य ज्ञानकी अभ्रान्त दृष्टि लेकर कोई दृढनिश्चय करता है तब उसके पुरुषार्थके सामने कोई भी शुभकर्म दुःसाध्य नहीं रद्द१९ (चाणक्य)