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चाणक्यसूत्राणि
कौमीरके मिटने के कोई लक्षण नहीं है । उसका पहला कारण तो यह है कि भले लोगोंको यह रुचती नहीं । दूसरा कारण यह है कि निकृष्ट लोग इसे नहीं रुचते। संत लोक स्तुति नहीं चाहते। असत लोक स्तुति के अयोग्य होते हैं। मात्मप्रचारककी मारमपशंसा उन्हें निंदित ही सिद्ध करती है।
पाठान्तर- नात्मा क्वापि स्तोतव्यः । कहीं भी किसी भी रूप में भात्मप्रशंसा न करनी चाहिये ।
(दिवाशयन अकर्तव्य )
न दिवा स्वप्नं कुर्यात् ।। ५१० ॥ दिनमें नहीं सोना चाहिये। विवरण- दिनमें सोनेस निश्चित रूपमें कार्य हानि, देह में वायुकी वृद्धि, मग्निमान्द्य शिरोरोग तथा आयुका ह्राम होता है । दिनमें सोन! आयुर्वेदमें प्रायः प्रत्येक रोगका कारण लिखा है । छोटे बालक रोगी तथा रातमें जागे हुए लोग दिन में हो सकते हैं। 'आयुः क्षयर्या दिवा निद्रा।' दिवानिद्रा आयुनाशक होती है। भारत में कहा है--- 'दिवाशया न मे पुत्रा न रात्री दाधमोजिनः ।'
मेरे पुत्र न तो दिनमें सोते हैं और न रातको दधि खाते हैं। मायुर्वेद में दोनोंकी हानियां वर्णित हैं।
(ऐश्वर्यान्ध निर्विवेक ) न चासन्नमपि पश्यत्यैश्वर्यान्धः न शणोतीष्टं वाक्यम् ॥५११॥
धनान्ध व्यक्ति व्यावहारिक संपर्कमें आनेवाले हितोपदेष्टा आसन्न व्यक्तियोंके व्यक्तित्वकी उपेक्षा किया करता है तथा उनके हितकारी वचनोंपर भी कान नहीं दिया करता।