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चाणक्यसूत्राणि
विवरण - क्योंकि मनुष्यतासे पतित होकर ही अर्जित होनेवाला धन मूर्तिमान् अनिष्ट है, इसीलिये मनुष्यका चोरी, दस्युता, शठता, कुटिलता, माया तथा अनृतसे धनोपार्जन करना निन्दित है । हीन उपायोंसे आनेवाला 'वन नीचाशयको अच्छा लगता है ।
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पाठान्तर- तद्विपरीतोऽनर्थसेवी ।
असन्मार्ग से धनोपार्जन करनेवाला मनुष्य निश्चित रूपसे अभापतित ढोकर अकथ्य हानि उठाता है ।
( सपाजकल्याणकारी त्रिवर्गान्तर्गत काम )
यो धर्मार्थो न विवर्धयति स कामः ॥ १५७ ॥
जो धर्म, अर्थ दोनोंको वृद्धि न करे वह काम है । विवरण - इस पाठ में अर्थ संगतिका अभाव है । पीडयति पाठान्तर में अर्थसंगति है । इससे यह अपपाठ है ।
पाठान्तर-- यो धर्मार्थी न पीडयति स कामः ।
जो काम मानवोचित धर्म तथा मानवोचित अर्थनीति दोनों में से किसीको जी विकृत नहीं करता वही स्वीकरणीय काम है ।
यथार्थ काम ' वही है जो धर्म और अर्थ दोनोंमेंसे किसीको बाधा न करे या हानि न पहुंचाये। धर्म ( अर्थात् अनपहरण या दूसरों के अधिकारपर अनाक्रमण ) तथा अर्थ ( अर्थात् धर्मपूर्वक उपार्जित जीवनसाधनों ) का विरोध या अपघात न कर बैठनेवाले, समाजकी शान्तिके संरक्षक सुखोपभोग काम' कहते हैं ।
धर्म, अर्थ तथा काम ये नीतिज्ञोंके त्रिवर्ग या तीन पुरुषार्थ हैं । 'धर्मार्थकामाः सममेव सेव्याः ' । धर्म, अर्थ तथा काम तीनों को सन्तुलितरूप में सेवन करना चाहिये, इन तीनों में पारस्परिक सहकारिता और अवध्यघातकता रहनी चाहिये | गीता में कहा 1 है. धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ ।