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समाजके मूल्यवान धन
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उनके मनमें आये तो वे भी भले ही चले जाने के संभार कर लें । नन्दोंके उन्मूलनमें अपनी शक्तिमहिमा दिखा चुकनेवाली कामसिद्ध करने में सैकड़ों सेनाओंसे अधिक काम कर दिखानेवाली मेरी केवल एक बुद्धि मेरे पाससे न चली जाय।"
(क्रोध के उत्तर में क्रोध मत करो )
अनावनिं न निक्षिपेत् ॥ ४१० ॥ आगमें आग न डाले, क्रोधके उत्तरमें क्रोध न करे। विवरण- मनुष्य क्रोधाविष्ट के क्रोधको अत्यन्त उत्तेजित करनेवाली ऐसी कोई बात या काम न करे कि स्वयं अशान्त होजाय और दूसरा प्राण तक लेने को उद्यत होजाय। कोधीकी क्रोधाग्निमें कोई धन नहीं देना चाहिए। इसीसे कहा है- “अक्रोधेन जेयत क्रोधम "किसीके क्रोध. पर विजय पाना हो अर्थात् व्यर्थ करना हो तो अपनी शान्तिको सुर. क्षित रखकर उत्तर दो। कोधका उत्तर कोधसे न देनेका अर्थ यह है कि क्रोध के प्रत्युत्तरमें क्रोध न कर के उपायान्तरले प्रतिकार करे । क्रोध करना स्वयं अशान्त होना और शत्रु कोधको अत्यन्त भडकनेका अवसर देना है। इसलिये जब कभी क्रोधी को प्रत्युत्तर देने का अवसर आये तब स्वयं संयत, अक्रोधी बने रहकर ही विजयी बने रहना संभव है। यदि मनुष्य इस समय क्रोधोको स्थिति लेलेगा तो उसका पराभूत होना अनिवार्य होजायगा। आगमें आग न डालकर उसपर तो उसे बुझानेवाला पानी डालना चाहिये। उत्तेजनाके अवसर पर उत्तेजक बातें न कहकर या उत्तेजक काम न करके अमृतवर्षी शीतल बात कहने या विवेकपूर्व के बर्ताव करनेसे ही शान्ति. रक्षा संभव है।
( जितेन्द्रिय समाजके मूल्यवान् धन )
तपस्विनः पूजनीयाः ॥ ४११ ॥ समाजके मार्गदर्शक जितेन्द्रिय लोग समस्त समाजके पूजनीय होते हैं।