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चाणक्यसूत्राणि
यदि वह कर्मकर्ताकी किसी दष्टि से न हो पाया हो तब तो उसकी उचित मात्रामें गर्हणा ठीक है । यदि वह कर्म ही दुष्कर था और इसीलिये सफल नहीं हो सका तो उसमें उसका दोष नहीं है । अज्ञानी लोग दुष्कर कर्मकी दुष्करतापर ध्यान न देकर उसका संपूर्ण दोष कर्ताक पिर डाल देते हैं। ऐसे समय पोचना तो यह चाहिये कि हमारा काम कारणदोषसे बिगडा है कि कर्तृदोषसे ? यदि वह काम किसी त्रटिवश पूरा न हुआ हो या पूरा होकर भी निष्फल रह गया हो तो उसे दुबारा करना चाहिये और यदि पूरा हो गया हो तो उसे उसका यश न देनेकी दुरभिसंधि त्यागकर उसका पष्टरूपसे कृतज होना चाहिये । पाठान्तर-- सुदुष्करं कर्म कारयित्वा कर्तारं नावमन्येत ।
मनुष्य किसीसे दुष्कर कर्म कराकर न तो कारणवश विफल होजानेपर उसका अपमान करें और न कर्ताको कर्तत्वका यश न पाने देने की दुर्भावनासे उसे अपमानित करे।
ऐसा व्यवहार करनेसे कर्ता मिलने दुष्कर हो जाते हैं और यह स्वभाव अपना ही हानि करने वाला होता है।
( अकृतज्ञ सर्वदा दुःखी) नाकृतज्ञस्य नरकान्निवतेनम् ॥ ४३९ ॥ कर्ताका उपकार न माननेवाले अकृतज्ञ मनष्यका नरक (अध:. पतनकी अवस्था से की उत्थान नहीं होता।
विवरण-- अकृतज्ञ मनुष्य अपने इस दुष्ट स्वभावसे अपने सहायकोंको निरुत्साहित करके सहायक ही न कर सके ला रह जाता और अपने को अपने ही हाथोंसे दुःखद अवस्था में फेंक देना है। अपनी कृतघ्नतासे सहायक खोदेना ही ना कनिवास है।। __'कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः।' कृतघ्नका कोई प्रायश्चित्त नहीं है । पाठान्तर-न कृतघ्नस्य ... ... ।