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दूसरोंका उत्तरदायित्व स्वार्थमूलक
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( सुनिश्चित विनाशसे अनिश्चित विनाशमें लाभ ) असंशयविनाशात् संशयविनाशः श्रेयान् ॥ १५३ ।। संग्रामविमुख निश्चित मौतसे सांग्रामिक अनिश्चित मौत मनु. एयके लिये श्रेयस्कर है।
विवरण-माज या सौ वर्ष पश्चात् मृत्यु तो मनुष्यकी होनी ही है। इसलिये इस निश्चित मृत्युका प्रतीक्षक न रहकर धर्मरक्षा करनेके लिये उपस्थित संभावित ( अर्थात् अनिश्चित ) विनाशयुक्त संग्राम क्षेत्रमें वीरगति पानेके सुअवसरको न खोकर, अपने अन्तिम श्वासोतक शत्रके दम्भको चूर्ण करने के लिये उद्यत रहने में ही वीरजीवनकी सार्थकता है। यदि विपत्तिसे बचकर भी मरण निश्चित हो तो विपत्तिका साम्मुख्य करते हुए या तो विजय या वीर. गति पाना अच्छा है। विपद्विजयके अनन्तर मिली मौत मनुष्यका सौभाग्य है। इस मौतमें विजय पाने तथा विजित न होनेका मात्मसन्तोष तो है। __ संग्रामसे बचने से मौतसे नहीं बचा जाता । जिस भनिवार्य मौतसे बचा ही नहीं जा सकता, उस मौतका विजयी मनसे आह्वान करनेसे ही मानव. जीवन सफल होता है और यही मौतको व्यर्थ बनाडालनारूपी मृत्युंजय बनना भी कहाता है। मृत्युंजय बनना ही वीर पुरुषोंकी एकमात्र पहचान है। अवीरोचित मारमप्रतारणा करके जीवनरक्षाके नामसे धर्मयुद्धस्थलसे भाग निकलने का समर्थन करना चाणक्य जैसे हुतारमाके इस सूत्रका अभिप्राय नहीं हो सकता।
__ (दूसरोंका उत्तरदायित्व स्वार्थमूलक) अपरधनानि निक्षेप्तुः केवलं स्वार्थम् ॥१५४॥ दूसरेके धनको धरोहर रूपमें रखनेवाला यदि धरोहर रखने के साथ स्वार्थभेद और दूसरों के प्रति अपना कोई उत्तरदायित्व नहीं समझता होगा तो वह निश्चित रूप में प्रत्येक समय अपना ही स्वार्थ खोजता रहेगा।