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मातृसेवा अत्याज्य कर्तव्य
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माचार्यका पद उपाध्यायसे दसगुना ऊंचा है। पिताका पद भाचार्यसे सौगुना ऊंचा है। परन्तु माताका पद तो गौरवकी दृष्टिसे पितासे सहस्र. गुण ऊंचा है। सूत्रकार कहना चाहते हैं कि स्त्रियों का कलत्ररूप भादरणीय न होकर मातृरूप ही भादरणीय है । पति-पत्नीका दाम्पत्य सम्बन्ध स्वार्यमूलक होता है जब कि मातापुत्रका सम्बन्ध हैतुक होता है। उस संबन्धकी अहैतुकता ही उसकी श्रेष्ठता है। मनुष्यकी माता उसके सामने स्नेह, करुणा, क्लेशसहन, कर्तव्यपालन तथा वात्मत्यागका जो अपूर्व मादर्श उपस्थित करती है उससे मानव सन्तानको मानवताके आदर्शका जीवित पाठ मिलता है। माता ही मनुष्यका प्राथमिक विश्वविद्यालय है।
(मातृसेवा अत्याज्य कर्तव्य ) सर्वावस्थासु माता भर्तव्या ॥ ३६३ ॥ सर्वावस्थामें माताका भरणपोषण करना सन्तानका कर्तव्य है। विवरण- सन्तानके लिये ऐसी कोई भी अवस्था स्वीकार नहीं की जा सकती जिसमें उसे मातृसेवा त्यागनेका अधिकार प्राप्त होसके । यद्यपि पिताकी सेवा भी सन्तानका कर्तव्य है तो भी इस सूत्रमें मातृसेवाको महत्व देनेका कारण यह है कि कभी-कभी पिता सन्तानसे सेवा पाने के अधिकारसे वंचित होनेवाले काम कर सकते हैं, परन्तु माताका ऐसा होना म्वभावविरुद्ध मानाजाता है । जो माता सन्तानको अपने प्राणोंसे भी प्रिय जानकर अपनी छातीका दूध पिलाती है, उसकी इस महती सेवाका प्रति. दान देना सन्तानका अपरिहार्य कर्तव्य है। उसका किसी भी अवस्थामें मातृत्याग करना विवेकानुमोदित नहीं है । मातृसेवा त्यागनेकी कोई परि. स्थिति नहीं होनी चाहिये । प्रतीत होता है कि सूत्रकारने " कृतदाराश्च मातरम्' समाज में मातृनिरादरके बहुल दृष्टान्त देखकर समाजपर यह धार्मिक बोझ ( दबाव ) डालना चाहा है कि मनध्य किसी भी प्रकारक प्रलोभन या दुष्टा भार्याकी कुमन्त्रणासे प्रभावित न हो तथा मातृसेवाके