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चाणक्यसूत्राणि
होजाना चाहिये । मनुष्यको अप्रतीकार्य समझी हुई विपत्तियोंके मानेपर उन्हीं जैसा कठोर बनकर उनका साम्मुख्य करना चाहिये । वीर मनुष्यको ऐसी विपत्तियों को देखकर अपने प्रयत्नों में अपेक्षित तीव्रता लानी चाहिये और उन्हें अपने कर्मक्षेत्रसे मारभगानेका प्रबलतम मायोजन करना चाहिये___ याते समुद्रेऽपि हि पोतभंगे सांयात्रिको वांछति तर्तुमेव।
जैसे पोतव्यापारी मध्यसागरमें पोतभंग होजानेपर भी निराश न होकर समुद्र-संतरणके समस्त संभव उपाय किये बिना नहीं मानते। इसीप्रकार उत्साहसंपन्न लोग विपत्तियोंसे न घबराकर विपद्वारण के उपाय ढूंड ने में व्यस्त होजाते हैं।
संपत्सु महतां चेतो भवत्युत्पलकोमलम् । विपत्सु च महाशलशिला संघातककशम् ।। महापुरुषों का चित्त संपत्तियों ( सुखों ) के दिनों में तो विपन्न सत्पुरुषकी सहायताके लिए कमलकी पंखडियों के समान कोमल होजाता तथा विपत्तियों के दिन आनेपर तो पर्वतकी शिलाओं के समान भयंकर विपत्तियों के सहने के लिये कठोर बन जाता है।
( विपत्ति या दुर्व्यसन को छोटा मान वर उपेक्षा न करे। )
व्यसनं मनागपि बाधते ॥ २५३ ॥ छोटासा भी व्यसन ( निर्बलता) मनुष्य के सर्वनाशका कारण बनजाता है।
विवरण- जैसे थोडासा भी विष मारक हो जाता है इसीप्रकार जीवनका थोडासा भी बुरा स्वभाव मनुष्य के संपूर्ण जीवनका सर्वनाश करडालता है। जिसमें बहुतसे व्यसन हैं उसके सर्वनाश की तो बात ही मत पूछो । मानव-जीवनरूपी महाहदका समस्त जीवन-रस दुर्व्यसनरूपी नालीके द्वारा बह-बहकर मानव जीवन-हदको गुणों और सुखोंसे रीता कर देता है।