Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०७ सू०३ मद्रकश्रमणोपासकचरितनिरूपणम् १२३ इत्यर्थः । पुनः कथयति मद्रुकः' अत्थि ण आउसो' अस्ति खलु आयुष्मन्तः ! 'अरणिसहगए अगणिकाए' अरणिसहगतोऽग्निकायः अरणिः वह्नयर्थं निर्मन्थनीयकाष्ठं तेन काष्ठेन सह गतः सहवरित इति अरणिसहगतः अग्निकायो बहिः अरणिकाष्ठेन सहाग्निवर्तते किम् ? इति मद्रुकस्याशयः । 'हंता अस्थि' हन्त, अस्ति अरणिकाष्ठेऽग्निर्वतते एवेत्युत्तरम् परतीथिकानामिति 'तुझे णं आउसो' ययं खलु आयुष्मन्तः 'अरणिसहगयस्त अगणिकायस्त रूवं पासह' अरणिसहगतस्य रूपं पश्पथ ? इति प्रश्नः ‘णो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः अरणिनिष्ठस्य बढेरतीन्द्रियस्य रूपं न पश्यामः, इत्युत्तरं पर थिकानाम् ' मद्रुक आह-'अस्थि गं आउसो' सन्ति खलु आयुष्मन्तः 'समुदस्स पागरयाई रुवाई' समुद्रस्य पारगतानि पुनः उनसे पूछता है-'अस्थि णं आउसो! अरणिसहगए अगणिकाए' कहो आयुष्मन्तो! अरणिकाष्ठ के सहगत अग्नि है क्या बह्नि के निमित्त जो काष्ठ रगडा जाता है वह अरणिकाष्ठ है। इसको रगडने से अग्नि होती है । उत्तर में उन्होंने कहा-'हंता अस्थि' हां मद्रुक अरणि. काष्ठ में अग्नि है मद्रुक ने पुन: उनसे पूछा-'तुज्झेणं आउसो ! अरणि सहगयस्त अगणिकायस्स एवं पासह' हे आयुष्मन्तो ! क्या तुम लोग उस अरणिकाष्ठ में वर्तमान अग्नि के रूप को देखते हों ? उत्तरमें उन्होंने कहा-'णो इणहे समढे' हे मद्रुक ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि अरणिकाष्ठगत अग्नि अतीन्द्रिय है । अतः उसके रूपको हम नहीं देख सकते हैं । पुनः मद्रुक ने उनसे पूछा-'अस्थि णं आउसो! समुहस्स पारगयाई रूवाई' हे आयुष्मन्तो ! कहो समुद्र के दूसरे तट ३५ने न शा नथी. ५२शया भ६ तमाने पूछे छे - "अस्थि णं आउसो! अरणिसहगए अगणिकाए" मायुमाता! है। सीना ४मा पनि રહેલે છે કે નહિ ? અગ્નિ પ્રદીપ્ત કરવા જે કાષ્ઠ પરસ્પર ઘસવામાં આવે છે તે અરણ કાષ્ઠ છે. તેને એકબીજા સાથે ઘસવાથી અગ્નિ ઉત્પન્ન થાય છે, या प्रश्न उत्तरमा तामे घु--"हंताअत्थि" है। भदु! मलिना ४४मा ममि २। छे. भ शथी पूछयु --"तुझे णं आउसो अरणिसहगयस अगणिकायस्स रूवं पासह" मायुभाता! शुतमे वो તે અરણિકાષ્ઠમાં રહેલા અગ્નિના રૂપને જોઈ શકે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં तमा उखु णो इणटे समढे" भ५ २५॥ अथ सशस२ नथी. ॐभ કે અરણિના કાષ્ઠમાં રહેલા અગ્નિ અતીન્દ્રિય છે. તેથી તેના રૂપને આપણે
शता नथी. शथी भद्रु५ श्राप तमान पूछ्युं है “अस्थि णं आउसो समुहस्स पारगयाई रुवाई" हे सायुभता! समुद्रना भी नारे थी
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩