Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०१० सू० ५ वस्तुतत्वनिरूपणम् २६७ तथा 'अम्बए वि अह" अव्ययोऽप्यहम् कतिपयानां प्रदेशानां व्ययाभावात् 'अब. ट्ठिए वि अह' अवस्थितोऽप्यहम् यत एव अक्षयोऽव्ययोऽतएव अवस्थितो नित्योऽप्यहम् असंख्येयप्रदेशिता हि जीवस्य न कदापि व्यपैति अतो जीवस्य नित्यत्वाभ्युपगमेऽपि न दोषः । तथा 'उवभोगट्ठयाए अणेगभूयभावभविए वि अह' उपयोगार्थतयाऽनेकभूतभावभविकोऽप्यहम् उपयोगार्थतया अनेकविषयकोपयो गानाश्रित्य अनेकभूतभाव भविकोऽप्यहमिति अतीतानागतकालयोरनेकविषयकोषानामात्मनः सकाशात् कथंचिदभिन्नानां भूतत्वात् भावियाच्चेति अनित्यपक्षोऽपि जाता है तो हे सोमिल ! उस समय में अक्षयरूप भी हूं क्योंकि प्रदेशों का त्रिकाल में भी क्षय नहीं होता है । तथो ‘अन्यए वि अहं' ऐसा जो कहा गया है वह जीव के एक भी प्रदेश का द्रव्य नहीं होने के कारण से कहा गया है 'अवट्टिए वि अहं' मैं अवस्थित भी हूं ऐसा जो प्रभुने सोमिल से कहा है सो उसका अभिप्राय ऐसा है कि जीव के जो असं. ख्यात प्रदेश हैं उनमें एक भी कमती बढती नहीं होता है इस कारण मैं अवस्थित भी हूँ अर्थात् नित्य भी हूँ जो वस्तु नित्य होती है वह अक्षय और अव्यय स्वरूप होती है मैं भी ऐसा ही हूँ अतएव मै नित्य हूँ ऐसा मानने में भी कोई दोष नहीं है । तथा 'उवओगट्टयाए अणेग. भूयभावभविए वि अहं' उपयोगार्थता की अपेक्षा लेकर मैं अनेकभूत भावभविक भी है। इस कथन से सोमिल को प्रभु ने यह समझाया है कि मैं अनित्य भी हूँ इस कथन का तात्पर्य ऐसा है कि अनेक पदार्थ. સમયે હું અક્ષય રૂપ પણ છું, કેમ કે-તે પ્રદેશને ત્રણે કાળમાં ક્ષય થત नथी. 'अव्वर वि अहं' मेQ २ मा मा०युछे, ते अपने ५६५ प्रशनु द्रव्य न वाना ॥२६४थी डस छे. 'अवधिए वि. अहं भवस्थित પણ છું, એ પ્રમાણે પ્રભુએ સોમિલ બ્રાહ્મણને જે કહ્યું છે, તેને ભાવ એ छ 3-04ना २ मसात प्रश। छे. तमा ४ ५ मावत्तिय नथी. તે કારણથી હું અવસિયત અર્થાત્ નિત્યપણું છું. જે વસ્તુ નિત્ય હોય છે, તે અક્ષય અને અવ્યય સ્વરૂપ હોય છે. હું પણ એ જ છું. તેથી જ હું नित्य छु. मे भानवामा ५g sोष भावते नथी. तथा 'उवओगट्टयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं' ५॥ पानी सपेक्षाथी हुँ भने लूत ભાવ ભાવિક પણ છું. આ કથનથી સેમિલને પ્રભુએ એ સમજાવ્યું છે કેહું અનિત્ય પણ છું એક કથનનું તાત્પર્ય એવું છે કે-અનેક પદાર્થ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૩