Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 966
________________ ९५२ भगवतीसूत्रे दर्शयति-'तं जहा' तद्यथा-'अणद्ध' अनर्द्धः, न विद्यते अर्ध यस्य सोऽनधों भवति, परमाणोः समसंख्य कावयवाभावात् , 'अमज्झे' अमध्यः विषमसंख्यकावयवा. भावात् , अमध्य इति, 'अपएसे' अप्रदेशः-नास्ति प्रदेशोऽवयवो यस्य सोऽप्रदेशः प्रदेशस्याभावात । अतएव 'अविभाइमें' अविभागिम:-अविभागेन निवृत्तः अविभागिमः, प्रदेशाभावात् परमाणुविभाजयितुमयोग्यः, प्रदेशवामेव विभागो भवति परमाणो स्ति प्रदेशः, नातो विभाजयितुं योग्योऽतोऽविभागिम इति कथ्यते । 'कालपरमाणू पुन्छा' कालपरमाणुरिति पृच्छा' हे भदन्त ! कालपरमाणुः कतिविधः प्रज्ञप्तः इति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'कालपरमाणू' कालपरमाणुः 'चउबिहे पन्नत्ते' चतुर्विधः प्रज्ञप्तः। चातुर्विध्यमेव हे गौतम ! क्षेत्रपरमाणु चार प्रकार का कहा गया है जो इस प्रकार से है-'अग डे' आदि-अनध परमाणु में समसंख्यक अवयवों का अभाव होता है इस कारण उसमें अर्धभाग नहीं होता है तथा विषमसंख्यक अवयवों का इसमें अभाव रहता है इससे इसे 'अमध्य' कहा है एक प्रदेश के सिवाय द्वितीयादिक प्रदेश इसमें होते नहीं हैं इससे इसे 'अप्रदेश' कहा है, तथा-यह अविभाग से निवृत्त होता है अर्थात् प्रदेशों के अभाव से परमाणु का विभाग नहीं होता है-प्रदेशवालों का ही विभाग होता है परमाणु के दो आदि प्रदेश होते नहीं हैं इसलिये इमका विभाग नहीं हो सकता है, इससे यह 'अविभागिम' कहा गया है । 'कालपरमाणू णं भंते ! कहविहे पण्णत्ते' कालपरमाणु कितने प्रकार का होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में गौतम से प्रभु कहते हैं-हे गौतम! ४॥२॥ ४ा छे. रे 20 प्रमाणे छ 'अणड्ढे' विगैरे मन ५२।। मामा સરખી સંખ્યાવાળા અવયને અભાવ હોય છે. તેથી તેમાં અર્ધો ભાગ હેતો નથી. તેમજ વિષમ સંખ્યાવાળા અવયને પણ તેમાં અભાવ હેય छ. तथा तर मध्यमा पारने 'अमध्य' ४२ छे. तेभा में प्रदेश सिवाय भी विरे प्रदेश। डता नथी तथा तेने 'अप्रदेश' प्रदेश विनाने। ४७स छे. તથા તે વિભાગ વગરને હોય છે. અર્થાત પ્રદેશોના અભાવથી પરમાણુઓને વિભાગ થતો નથીકારણ કે પ્રદેશવાળાઓને જ વિભાગ થઈ શકે છે. પરમાણુઓના બે વિગેરે પ્રદેશ હેડતા નથી, તેથી તેને વિભાગ થઈ શકતે नी, ती an 'अविभागिम' विमा १२ने ४ामा मावे छे. 'कालपरमाणू णं भंते ! कइविहे पन्नत्ते' 3 भगवन् स५२मा ३८ प्रा२ना ४ा छ १ मा શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩

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