Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे नतु वयं तथेतिभावः 'तएणं भगवं गोयमे' ततः खलु भगवान् गौतमः ते अन्नउस्थिए एवं पडिहणई तान् अन्ययूथिकान एवम्-यथोक्तपकारेण प्रतिहन्ति पराभवति निरूत्तरोकरोतीत्यर्थः 'पडिहणित्ता' प्रतिहत्य-पराभूय' जेणेव समणे भगवं महावीरे' यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरः 'तेणेव उवागच्छ।' तत्रैवोपागच्छति' उपागत्य-भगवतः समीपमागत्य' समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसई' श्रमणं उन अन्ययूथिकों से ऐसा कहा 'तुझे णं अज्जो रीयं रीयमाणा' जब
आप लोग गमनागमन करते हैं, तब जीवों को 'पेच्चेह' कुचलते जाते हैं । 'जाव उवद्दवेह' यावत् उन्हें उपद्रवित करते जाते हैं। यहाँ याव. स्पद से 'अभिह थ' आदि पदों का संग्रह हुआ है । 'तए णं तुझे पाणे पेच्चेमाणा इस्या०' इस कारण प्राणों को कुचलने के कारण और यावत् उन्हें उतद्रवित करने के कारण आप लोग त्रिविध विविध से असंयत हैं और एकान्तवाल भी विरतिरहित भी हैं । निगमन इसका केवल ऐसा ही है कि जिस कारण से आप लोग मार्ग पर चलते हुए प्राणों को नष्ट करते हो इसी कारण से आप लोग प्राणों के विनाशक होने से असंयत और एकान्तबाल होते हो, हम लोग नहीं। 'तए णं भगवं गोयमे ते अन्नउत्थिए एवं पडिहणई' इस प्रकार से भगवान् गौतम ने उन अन्ययूथिकों को इस प्रकार से निरुत्तर कर दिया। 'पडिहणित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छह' और निरुत्तर करके फिर वे जहां श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे वहां पर आये । 'उवागयूथिने या प्रमाणे प्रयु:-"तुझे गं अज्जो !रीय रीयमाणस्स" स्यारे तमा at मा ४२ छी, त्यारे वान “पेच्चेह" या छ।. "जाव उवहवेह" यावत तर ७५३ ४२॥ छ।, महिया.५४था "अभिहथ" विगैरे हो अंडय ४२१॥ छे. "तए णं तुझे पाणे पेच्चेमाणा" त्यादि प्राणियोन या થી યાવત્ તેઓને ઉપદ્રવ વાળા કરવાથી તમે ત્રણ કરણ અને ત્રણ ચોગથી અસંયત છે અને એકાન્તબાલ પણ છે તથા વિરતિ વિનાના પણ છે.
આ કથનને સાર એ છે કે –તમો લેકે માગ પર ચાલતાં પ્રાણિને મારે છે તેઓને દુઃખ પહોંચાડે છે તે કારણથી તમે જ પ્રાણિના પ્રાણોના નાશ કરનાર હોવાથી અસંયત અને એકાન્તબાલ છે. અમે એકાન્તબાલ નથી. "तए णं भगवं गोयमे ते अन्नउत्थिए एवं पडिहणह" मारी लगवान् गौतम स्वाभासत अन्य यूथिने २ ते निरुत्तर ४ था. “यडिहणित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ" मा शत तमान नि३त्तर मनापान
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩