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तृतीत अधिकरण स्वप्न में जैसा वासना के वश, अविद्यमान वस्तुओं का दर्शन होता है, से ही भगवदिच्छा के वश मुक्त शरीर में प्राकृत भोगों की सी अनुभूति होती है ।
चतुर्थ अधिकरण पूर्णज्ञान क्रिया शक्तिमान परमात्मा के साथ इन शक्तियों से रहित भक्त का भोग करना संभव नहीं प्रतीत होता इस संशय पर कहते हैं कि भगवान उस जीव में प्रविष्ट हो जाते हैं तब संभव हो जाता है। जैसे कि स्नेह युक्त पुराने दीपक की बत्ती में जब प्रकाश धीमा होने लगता है तो उसी के साथ नई बत्ती लगाने पर प्रकाश तेज हो जाता है वैसे ही यहाँ भी होता है ।
पञ्चम अधिकरण ब्रह्म के साथ जो भोग होता है वह लौकिक व्यापार युक्त होता है या अलौकिक ? इस संशय पर लौकिक पक्ष का निराकरण कर सिद्धान्ततः अलौकिक पक्ष का समर्थन करते हैं। इसी अधिकरण में लोला नित्यता का निर्णय करते हैं । "अनावृत्तिः शब्दात् अनावृत्तिः शब्दात्" सूत्र से भक्त और ज्ञानी दोनों की अनावृत्ति का निर्णय करते हैं वे कहते हैं कि-प्रथम अनावृत्ति शब्द पुष्टिमार्गीव भक्त से सम्बद्ध है जो कि भगवान की वेणु ध्वनि को श्रवण कर भगवान के निकट जाकर नहीं लोटता। द्वितीय अनावृत्ति शब्द मर्यादा मार्गीय भक्त से सम्बद्ध है जो कि वैदिक शब्दों के अनुरूप साधनाकर नहीं लौटता।